भीतर जो भी भाव सृजन के
जलकर बाती तम हरती है
कवि ! तू अपनी ज्योति प्रखर कर,
अँधियारा घिर आया जग में
तज प्रमाद निज दृष्टि उधर कर !
श्रम से स्वेद बहे जो जग में
फूल खिलाता वही वनों में,
तिल-तिल कर जलता जब सूरज
उजियारा छाता इस जग में !
भीतर जो भी भाव सृजन के
अकुलाहट की आह जो जगी,
जीवन पथ निर्विघ्न बनाए
वही बनेगी क्षमता उर की !
उज्जवल अभिव्यक्ति पथ निर्विघ्न कर रही है !! बहुत सुंदर !!
जवाब देंहटाएंवाह! कितने सुंदर शब्दों में आपने प्रतिक्रिया व्यक्त की है, स्वागत व आभार अनुपमा जी !
हटाएंजलकर बाती तम हरती है
जवाब देंहटाएंकवि ! तू अपनी ज्योति प्रखर कर,
अँधियारा घिर आया जग में
तज प्रमाद निज दृष्टि उधर कर !
सच्चा आह्वान । बहुत सुंदर ।।
हृदय से स्वागत व आभार संगीता जी!
हटाएंछोटे से काव्य में गहन साथ कह दिया आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
कवियों के लिए सार्थक सृजन का आह्वान करती सुंदर रचना।
कवि अंतर तक पहुँच गयी कवि उर की फ़रियाद! स्वागत व आभार कुसुम जी!
हटाएंमन का नवीन सृजन उर की सृजन प्रक्रिया को हमेशा पोषित करता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत भाव पूर्ण रचना ...