शुक्रवार, जून 10

भीतर जो भी भाव सृजन के

भीतर जो भी भाव सृजन के 

जलकर बाती तम हरती है 

कवि ! तू अपनी ज्योति प्रखर कर, 

अँधियारा घिर आया जग में 

तज प्रमाद निज दृष्टि उधर कर !


श्रम से स्वेद बहे जो जग में 

 फूल खिलाता वही वनों में,

तिल-तिल कर जलता जब सूरज 

उजियारा छाता इस जग में !


भीतर जो भी भाव सृजन के 

अकुलाहट की आह जो जगी, 

जीवन पथ निर्विघ्न बनाए

वही बनेगी क्षमता उर की !


7 टिप्‍पणियां:

  1. उज्जवल अभिव्यक्ति पथ निर्विघ्न कर रही है !! बहुत सुंदर !!

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    1. वाह! कितने सुंदर शब्दों में आपने प्रतिक्रिया व्यक्त की है, स्वागत व आभार अनुपमा जी !

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  2. जलकर बाती तम हरती है

    कवि ! तू अपनी ज्योति प्रखर कर,

    अँधियारा घिर आया जग में

    तज प्रमाद निज दृष्टि उधर कर !

    सच्चा आह्वान । बहुत सुंदर ।।

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  3. छोटे से काव्य में गहन साथ कह दिया आपने।
    बहुत सुंदर सृजन।
    कवियों के लिए सार्थक सृजन का आह्वान करती सुंदर रचना।

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    1. कवि अंतर तक पहुँच गयी कवि उर की फ़रियाद! स्वागत व आभार कुसुम जी!

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  4. मन का नवीन सृजन उर की सृजन प्रक्रिया को हमेशा पोषित करता है ...
    बहुत भाव पूर्ण रचना ...

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