फलसफा मन का
कह रहा है कोई कब से
सुनो सरगोशियाँ उसकी
बेहद महीन सी आवाज़
पुकारे है जिसकी
शोर ख़्वाहिशों का दिल में
थम जाए जिस घड़ी
इक पुर सुकून पवन
आहिस्ता से छू जाती
कोई कशिश, तलाश कोई
अनजान राहों पर लिए जाती
वह जो अपना सा लगे
याद जिसकी बरबस सताती
चैन उसकी पनाह में है
यह राज अब राज नहीं
भुलाना नहीं मुमकिन
क्या दिल को यह अंदाज नहीं
उसकी फ़िक्रों में नींद रातों की गंवायी
जिक्र उसका हर नज्म में जो भी गायी
रहे उस गली में वही
समाते जहाँ दो नहीं
हवा है, धूप या
पानी का कतरा
सबब जीवन का
या फलसफा मन का !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-7-22) को "बदलते समय.....कच्चे रिश्ते...". (चर्चा अंक 4486) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी!
हटाएंमन का फ़लसफ़ा ही तो सारी खुराफ़ातों की जड़ है.
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं आप, स्वागत व आभार!
हटाएंबहुत खूब। मन का फलसफा बहुत बढ़िया लगा। शुभकामनाएँ। सादर।
जवाब देंहटाएंपहली बार आपका आगमन हुआ है इस ब्लॉग पर, स्वागत व आभार!
हटाएंसुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
हटाएंमन का ही तो सारा खेल है ,सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रंजू जी!
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनीता जी!
हटाएंसुंदर प्रभावी रचना
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