प्रकट और अप्रकट
जगत
बुना है
प्रकट और अप्रकट
तन्तुओं से
मन
कुछ-कुछ ज़ाहिर होता है कर्मों से
कुछ छिपा ही रहता है भीतर
कितना छुपाना है
कितना दिखाना
शायद यह सीख लिया है
सहज ही कुदरत से
जड़ें छिपी रहती हैं
भूमि में दूर तक अंधकार में
और ऊपर फूल खिलाता है पेड़
मन की जड़ें भी फैली हैं
रिश्तों, वस्तुओं, स्मृतियों में
ना जाने कितने जन्मों की
अनंत की छाँव में यह खेल चलता है
यह धूप-छाँव का खेल ही जीवन है
हर श्वास में उगता निःश्वास में ढलता है !
हर श्वास में उगता निःश्वास में ढलता........सब कुछ.......मनभावन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार हरिहर जी!
हटाएंसच में जीवन ऐसा ही है। सुन्दर भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी!
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4594 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
बहुत बहुत आभार विर्क जी!
हटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
हटाएंसुंदर दर्शन !
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन।
स्वागत व आभार कुसुम जी !
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