सदा रहे जो
यहाँ-वहाँ, इधर-उधर
उलझे हैं जो धागे मन के
उन्हें समेटें
बाँधें फिर समता खूँटे से
डोर तान लें
आज किसी का सम्बल पाया
कल जब छलती होगी माया
सदा रहे जो
ऐसा इक आधार जान लें
बाहर जग यह छिटक रहा है
भीतर से एक द्वार खान लें !
जब निज का यह अंग बनेगा
भेद कहीं तब कहाँ रहेगा
सारे उसके ही प्रतिनिधि यहाँ
यही जान बस उन चरणों के
गा गान लें !
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