मन भी किसी और की माया
माटी से निर्मित यह भूमा
माटी से ही चोला तन का,
माटी का भी स्रोत कहीं है
ढूँढे वही यात्री मन का !
हर पदार्थ मन की छाया है
मन भी किसी और की माया,
निजता में ही मिलता शायद
धुर नीरव में नाद समाया !
ज्यों कुम्हार मन में रचता है
फिर आकार बनें माटी के,
उर संवेग भाव उमड़ें जब
तब उढ़ाए वस्त्र शब्दों के !
जग में मुक्त वही विचरे वपु
मुदिता मद सम नीर उर भरे,
अकल्पनीय स्वप्न पलकों में
नहीं विकल्पों से कभी डरे !
जीवन संदर्भ पर गूढ़ कविता ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
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