एक प्यास जो अंतहीन है
एक ललक अम्बर छूने की
एक लगन उससे मिलने की,
एक प्यास जो अंतहीन है
एक आस खुद के खिलने की !
सत्य अनुपम मन गगन समान
उसमें मुझमें न भेद कोई,
जल में राह मीन प्यासी क्यों
खिल जाता वह ठहरा है जो !
पाने की हर बात भरम है
जो भी अपना मिला हुआ है,
बनने की हर आस भुलाती
हर उर भीतर खिला हुआ है !
भीतर ही विश्राम सिंधु है
भर लें जिससे दिल की गागर,
गर उससे तृप्ति नहीं पायी
परम भेद कब हुआ उजागर !
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
जवाब देंहटाएंएक ललक अम्बर छूने की
जवाब देंहटाएंएक लगन उससे मिलने की,
एक प्यास जो अंतहीन है
एक आस खुद के खिलने की !
प्यास और आस को तृप्त करती सुंदर रचना आदरणीय ।
स्वागत व आभार दीपक जी!
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जवाब देंहटाएंएक लगन उससे मिलने की,
एक प्यास जो अंतहीन है
एक आस खुद के खिलने की !
.. बहुत ही प्रेरक और ऊर्जा प्रदान करती पंक्तियां। बहुत सुंदर रचना।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
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