मन - छाया
छायाओं से लड़कर कोई
जीत सका है भला आजतक
सारी कश्मकश
छायाएँ ही तो हैं
उनके परिणामों से बंधे
हम जन्म-जन्म गँवा देते हैं
ज़रूरत है प्रकाश में खड़े होने की
तब न कोई कारण है न परिणाम
न कोई चाहत न अरमान
मन को ख़ाली करना ही
ज्योति की शरण में आना है
सारा उहापोह जो न जाने
कब से एकत्र किया है भीतर
इसके-उसके,
अपनों-बेगानों,
दुनिया-जहान और
खुद की कमज़ोरियों के प्रति
सभी छायाएँ हैं मात्र
जिन्हें सच मान बैठा है मन
सच करुणा व प्रेम का वह स्रोत है
जो प्रकाश से झरता है
सहज आनंद का स्वामी
जहाँ निर्द्वंद्व बसता है
जो शिव का वास है
वही तो देवी का कैलाश है !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 5 अप्रैल 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम
बहुत बहुत आभार पम्मी जी!
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ज्योति जी!
हटाएंमन को ख़ाली करना ही
जवाब देंहटाएंज्योति की शरण में आना है
सारा उहापोह जो न जाने
कब से एकत्र किया है भीतर
.. गंभीर चिंतन सदैव प्रेरणा देता है.. आभार दीदी।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
हटाएंये छायाएं ही संसार को रचती हैं ,इनसे मुक्ति पाना सहज नहीं .
जवाब देंहटाएंमुक्ति पाए बिना खुद से मुलाक़ात नहीं हो सकती, आभार प्रतिभा जी!
हटाएंसार गर्भित रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार उर्मिला जी!
हटाएंये छाया तो बस भ्रम मात्र हैं
हटाएंऔर हम शाश
वत प्रकाश से दूर भ्रम में जीने आदि होते जाते हैं।
स्वागत व आभार सुधा जी!
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (9-4-23} को "हमारा वैदिक गणित"(चर्चा अंक 4654) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार कामिनी जी!
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