स्पंदन
जो भी सृजित है
गढ़ा गया है
निरंतर गतिमान है
सृजन के क्षण से
तरंगित और कंपित है
परमाणु में घूम रहे हैं
सूक्ष्म इलेक्ट्रॉन
अनवरत नाभि के चारों ओर
जैसे घूमती है धरा
अपनी सीमा में
श्वास की धुन बज रही है रातदिन
धारा मन की बहती जाती है
नींद में भी
किन्ह अनजान तटों को छू आती है
समय का अश्व दौड़ा जा रहा है
युग पर युग बीतते जाते हैं
पर नहीं चूकती है ऊर्जा की यह
अजस्र खान
जो इस सारे आयोजन का
आधार है
इसीलिए तो मनुज को
भगवान से प्यार है !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 13 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसमय का अश्व दौड़ रहा है
जवाब देंहटाएंजीवन सत्य को रेखांकित करती सुंदर रचना।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
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