एक बांसुरी की सरगम दिल
बस कशमकश है ज़िंदगी, या
प्रीत रागिनी मधुर बज रही,
क्यों इसको संघर्ष बनाते
निशदिन रस की धार बह रही !
सुरमई साँझ, केसरिया दिन
लपटों में घिर-घिर जाते क्यों,
एक बांसुरी की सरगम दिल
व्यर्थ शोर में बदल रहा ज्यों !
प्रेम गुज़ारिश, एक बंदगी
फ़रमानों की भेंट चढ़ गया,
जहां सरसता उग सकती थी
अरमानों का रक्त बह गया !
चंद खनकते सिक्कों आगे
दिल का दर्द न पड़ा दिखायी,
अहंकार की भाषा जीती
सदा प्रीत की ही रुसवाई !
लेकिन आख़िर कब तक बोलो
जीवन दुर्दम बोझ सहेगा,
तोड़ बंधनों की सीमाएँ
नव अंकुर सा उमग बहेगा !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 18 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी!
हटाएंलेकिन आख़िर कब तक बोलो
जवाब देंहटाएंजीवन दुर्दम बोझ सहेगा,
तोड़ बंधनों की सीमाएँ
नव अंकुर सा उमग बहेगा !
वाह! बहुत सुंदर।
स्वागत व आभार!
हटाएंवाह लाजबाव पंक्तियां
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
हटाएंखुद के प्रश्नों का उत्तर खुद से ही मांगती मार्मिक रचना प्रिय अनीता जी। इन प्रश्नों के उत्तर मिल जाते तो जीवन कितना सरल होता!!🙏
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है, पर पूछते रहने होंगे कुछ सवाल, जब तक समाधान न हो, आभार रेणु जी !
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