शरद की एक शाम
भीगी-भीगी दूब ओस से
हरीतिमा जिसकी मनभाती,
शेफाली की मोहक सुवास
झींगुर गान संग तिर आती !
शरद काल का नीरव नभ है
रिक्त मेघ से, दर्पण जैसा,
दमक रहा संध्या का तारा
चन्द्र बना सौंदर्य गगन का !
हल्की हल्की ठंडक प्यारी
सन्नाटे को सघन बनाती,
पेड़ों, पौधों की छायाएं
उपवन रहस्यमयी बनातीं !
नन्हें नन्हें कुछ कीट दूब में
श्वेत पतंगे ज्योति खोजते,
नवरात्रि पूजा के मंत्र स्वर
छन के आते मंदिर पट से !
एक और आवाज गूंजती
नीरवता को भंग कर रही,
बिजली चली गयी लगती है
जेनरेटर की धुन बज रही !
बिजली चली गई जैसे ... अब भीगे मौसम तो कुछ न कुछ हो होगा ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
स्वागत व आभार!
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2023) को "आया है चौमास" (चर्चा अंक 4671) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
हटाएंएक और आवाज गूंजती
जवाब देंहटाएंनीरवता को भंग कर रही,
बिजली चली गयी लगती है
जेनरेटर की धुन बज रही !
.... बहुत सुन्दर ---
स्वागत व आभार कविता जी !
हटाएं'शरद काल का नीरव नभ है
जवाब देंहटाएंरिक्त मेघ से, दर्पण जैसा,
दमक रहा संध्या का तारा
चन्द्र बना सौंदर्य गगन का।' ... कवितामय सौन्दर्य!
स्वागत व आभार!
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