अनजाने पथ पर वह सहचर
नव सृजन घटे नव द्वार खुलें
कदम पड़ेगा जब अनंत का,
नूतन राग जगेंगे, जैसे
शीश उठाये कोमल दूर्वा !
नव भाषा, नव छंद, शब्द नव
है अपार उसका भंडारा,
मिलकर जिससे जीवन जी ले
मिले सदा के लिए सहारा !
पुष्प खिलेंगे जब श्रद्धा के
इक अभिनव मुस्कान उठेगी,
हर लेगी हर तमस भाव वह
शुभ्र ज्योत्सना छा जाएगी !
चहुँ दिशाओं में गुंजित सदा
तान नशीली प्रेम की अमर,
हाथ पकड़ कर ले जाता है
अनजाने पथ पर वह सहचर !
अंतर्यामी मन का वासी
जो आह्लादित पल-पल रहता,
अति निकटता के क्षण में कभी
मौन मुखर उसका हो जाता !
अपना वही नहीं जो सपना
हाथ बढ़ाकर छूलें जिसको,
जिसके होने से ही जग है
कैसे भला बिसारें उसको !
उस लोक का जिसे अलोकिक भी कह सकते हैं |
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जोशी जी, आपने सही कहा है, वह अलौकिक है पर उससे ही यह लोक आया है
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंजीवन पथ भी तो अनजाना ही है ... इश्वर ही सहचर हो जाएँ को बात ही क्या ...
जवाब देंहटाएंसही है,स्वागत व आभार !
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