चिनार की छाँव में
गुलमर्ग की यादें -१
आज हम गुलमर्ग आ गये हैं। इतिहास के पन्नों में झांका तो पता चला, श्रीनगर से तकरीबन 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुलमर्ग का असली नाम गौरीमर्ग था जो यहाँ के चरवाहों ने इसे दिया था। 16वीं शताब्दी में सुल्तान युसुफ शाह ने इसका नाम गुलमर्ग रखा। आज यह मात्र पहाड़ी पर्यटक स्थान नहीं है, बल्कि यहाँ विश्व का सबसे बड़ा गोल्फ कोर्स है और यह देश का प्रमुख स्की रिज़ाॅर्ट भी है।इसकी सुंदरता के कारण इसे धरती का स्वर्ग भी कहा जाता है। फूलों के प्रदेश के नाम से मशहूर यह स्थान बारामूला ज़िले में स्थित है। यहाँ के हरे भरे ढलान यात्रियों को अपनी ओर खींचते हैं। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 2730 मी.है। हर बरस सर्दी के मौसम में यहाँ बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। ।
यहाँ हमारा निवास होटल रोजवुड में है।होटल की इमारत लकड़ी की बनी है और वास्तुकला के हिसाब से बहुत सुंदर है। होटल के निकट ही एक झरना बह रहा है, जिसकी आवाज़ कमरों तक आ रही है। सुबह लगभग सवा दस बजे हम पहलगाम से रवाना हुए थे।चिनार रिजॉर्ट में बिताये दो दिन एक मधुर याद बनकर ह्रदय में अंकित हो गये हैं। मार्ग में सर्वप्रथम हम सेब के बगीचे देखने के लिए रुके। कश्मीरी सेब की मिठास से भला कौन अपरिचित है? एक बगीचे की मालकिन से मुलाक़ात हुई, वह एक छोटे से कमरे में सेब की ताजी फसल तुड़वा कर रख रही थी। लाल गालों वाले उसके दो बच्चे भी वहाँ थे। हमने उनसे सेब ख़रीदे और उनके साथ तस्वीरें भी खिंचवायीं।एक दुकान पर सेब का रस मिल रहा था, सेब का अचार, जैम आदि भी ख़रीदे। एक वृक्ष पर चढ़ा छोटा सा बच्चा बड़ी कुशलता से सेब उतार रहा था, जिसका एक वीडियो हमने बना लिया।
भारत में सबसे अधिक सेब का उत्पादन जम्मू कश्मीर में होता है. सेब उगाना कश्मीर में लाखों किसानों के लिए आय और आजीविका पैदा करने का एक बहुत महत्वपूर्ण संसाधन रहा है।देश के कुल सेब उत्पादन में जम्मू कश्मीर का अकेले का 70.54 फीसदी का योगदान है.यहाँ सेब की 113 किस्में उगायी जाती हैं। कश्मीर के सेब लाल और चिकनी त्वचा वाले होते हैं जो गुणवत्ता और स्वाद के मामले में बेहतर हैं। इनका कुरकुरा, मीठा और रसदार स्वाद तो आनंदित करता ही है, साथ ही ये विटामिन सी, फाइबर, और एंटीऑक्सीडेंट के अच्छे स्रोत हैं।
हमारा दूसरा पड़ाव था एक कार्पेट सेंटर, जहां कश्मीरी शालें, पैपिये मैशे ( काग़ज़ की लुगदी), अखरोट की लकड़ी के सामान तथा हस्तकला के कई अन्य उत्पाद भी मिलते हैं। कश्मीरी क़ालीन का इतिहास भी बहुत पुराना है, सेंटर के मालिक ने हमारे समूह को कारख़ाना दिखाया, जहां हथकरघे पर हाथ से क़ालीन बुने जा रहे थे।वहाँ रेशम के धागों तथा सूती धागों से कार्पेट बनाये जाते हैं। जिनकी क़ीमत हज़ारों से लेकर लाखों में होती है। हमने एक छोटा आसननुमा कार्पेट ख़रीदा और दो शालें भी। पश्मीना और तूत की शालें भी हमने देखीं, जो बहुमूल्य ऊन से बनी गई थीं, जिनका निर्यात विदेशों में भी होता है। कश्मीर के कालीन मुख्य रूप से शुद्ध ऊन, शुद्ध रेशम और कभी-कभी ऊन और रेशम के मिश्रण का उपयोग करके बनाए जाते हैं। अपनी असाधारण कारीगरी के कारण दुनिया भर के पारखी लोगों द्वारा सबसे अधिक मांग वाली कलाकृतियों में से एक हैं।कश्मीर के गलीचे नीले, लाल, हरे जैसे रंगों में पारंपरिक रूप से पुष्प डिजाइनों में बनाए जाते हैं जिनमें आम तौर पर कमल, मोर, अन्य पक्षी, चिनार के पत्ते व वृक्ष शामिल होते हैं। कश्मीर लोककथाओं में यह अक्सर कहा जाता है कि एक घर, उसकी आत्मा अर्थात एक कश्मीरी कालीन के बिना अधूरा है। इनको बनाने की कला को पहली बार लगभग 400 साल पहले भारत में मुगल शासकों द्वारा बढ़ावा दिया था।
दोपहर के भोजन का वक्त हो चला था जब हम दुकान से बाहर निकले। ड्राइवर एक ढाबे पर ले गया, जहां गर्म भोजन मिल रहा था। राजमा व पालक पनीर यहाँ बहुत प्रचलित है। इसके बाद हम टनमर्ग में एक ऐसी दुकान पर रुके जहां गुलमर्ग में बर्फ पर चलने के लिए गमबूट किराए पर मिलते हैं। सभी ने अगले दिन के लिए अपने साइज के जूते लिए। ठंड अब बढ़ने लगी थी, आगे का रास्ता पहाड़ी था। गुलमर्ग पहुँच कर सबने कहवा पिया और पैदल ही घूमने निकल पड़े।किंतु ठंड के कारण चलना कठिन लग रहा था, तभी एक जीप हमारे निकट आकर रुकी। ड्राइवर ने स्थानीय दर्शनीय स्थल दिखाने का प्रस्ताव रखा जो हमने मंज़ूर कर लिया । गाड़ी में बैठे हुए स्ट्राबेरी वैली, स्वीट पोटैटो वैली, लेपर्ड वैली दूर से दिखाईं, वहाँ ऑफ रोड गाड़ियाँ ही चलती हैं। महाराजा पैलेस, महारानी का मंदिर, बच्चों का पार्क, गोल्फ क्लब आदि दिखाते हुए वह गुलमर्ग का इतिहास तथा साल भर चलने वाली गतिविधियों के बारे में बता रहा था। महारानी मंदिर, जो शिव मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, का निर्माण महाराज हरि सिंह ने अपनी पत्नी महारानी मोहिनी बाई सिसोदिया के लिए किया था। यह मंदिर हरियाली के मध्य एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है और गुलमर्ग के सभी कोनों से दिखाई देता है।महाराजा पैलेस भी 19वीं सदी की शुरुआत में महाराज हरि सिंह द्वारा बनाया गया था।एक ऊँचे स्थान पर ले जाकर उसने पूर्णिमा के उगते हुए चाँद के दर्शन भी कराये। शाम घनी हो गई थी, जब बाहर कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था, तब वह हमें कहानियाँ सुनाकर व्यस्त रखना चाहता था। उसने बताया कैसे गाँवों में लोग जंगली जानवरों के आने के डर से शाम होते ही घर बंद कर लेते हैं। वहाँ भूत-प्रेत से भी लोग डरते हैं। हमने अगले दिन करने वाली गंडोला राइड के बारे में भी पता किया और होटल लौट आये।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंबहुत सुंदर यात्रा-संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जोशी जी !
हटाएंगुलमर्ग यात्रा का बहुत सुंदर विवरण ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुधा जी !
हटाएंबहुत कमाल क विवरन ... गुलमर्ग यात्रा का बहुत सुंदर चित्र बनाया ....
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार दिगंबर जी !
हटाएंबहुत सुंदर यात्रा संस्मरण। बहुत शुभकामनाएं दीदी।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
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