निर्मल बुद्ध चेतना लेकर
एक समन्दर विमल शांति का
एक बगीचा ज्यों पुष्पों का,
एक अनंत गगन सम विस्तृत
मौन एक पसरा मीलों का !
दिवस अवतरण का पावन है
बरसों पूर्व धरा पर आये,
निर्मल बुद्ध चेतना लेकर
भारत धरती पर मुस्काए !
शैशव काल से ही भक्ति का
बीज अंकुरित था अंतर में,
लाखों जन की पीड़ा हर लूँ
यह अंकित था कोमल उर में !
कड़ी तपस्या बरसों इस हित
सहज ध्यान में बैठे रहते,
जग को क्या अनमोल भेंट दूँ
इस धुन में ही खोये रहते !
ख़ुद कुछ पाना शेष नहीं था
तृप्त हुआ था कण-कण प्रभु से,
चिन्मय रूप गुरू का दमके
पोर-पोर भीगा था रस से !
परम क्रिया की कुंजी बाँटी
राज दिया भीतर जाने का,
छुपा हुआ जो प्रेम हृदय में
मार्ग दिया उसको पाने का !
सद्गुरु को शत-शत प्रणाम हैं
कृपा बरसती है नयनों से,
शब्द अल्प हैं क्या कह सकते
तृप्ति झरे सुंदर बयनों से !
लाख जन्म लेकर भी शायद
नहीं उऋण हो सकता साधक,
गुरू की इक दृष्टि ही जिसको
करती पावन जैसे पावक !
सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" आज मंगलवार 14 मई 2024 को लिंक की गई है .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
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