रेत पर टिकते नहीं घर
स्वप्न ही तो है जगत यह
टूटना नियति है इसकी,
सत्य मानो या सहेजो
छूटना फ़ितरत इसी की !
आँख भरकर देख लो बस
मुस्कुरा लो साथ मिलकर,
किंतु न बाँधो उम्मीदें
रेत पर टिकते नहीं घर !
ओस की इक बूँद हो ज्यों
है यही सौंदर्य इसका,
गगन में रंगों का मेल
नदी में ज्यों बहे धारा !
प्रीत की जो बेल बोई
वह सदा उसके लिए है,
भ्रम हुआ जब जगत चाहा
शाश्वत सदा अप्रगट है !
जगत माला में पिरोया
स्वयं बनकर पूर्ण आया,
स्वयं को ही देखते हम
स्वप्न का लेते सहारा !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 10 अक्टूबर 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसांसारिकता के सत्य को उद्घाटित करती बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंवाह वाह, भावपूर्ण सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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