ऋण
पिता आकाश है, माँ धरा
जो अपने अंश से
पोषण करती है संतान का
पिता सूरज है, माँ चंद्रमा
जो शीतल किरणों से
हर दर्द पर लेप लगाता है
पिता पवन है, माँ अग्नि
जो नेह की उष्मा से
जीवन में रंग भरती है
पिता सागर है, माँ नदिया
जो मीठे जल से प्यास बुझाती है
पिता है, तो माँ है
आकाश के बिना धरा कहाँ होगी
अंततः सूरज से ही उपजा है चाँद
वाष्पित सागर ही नदी है
दोनों पूरक हैं इकदूजे के
और इस तरह हर कोई
ऋणी है माँ-पिता का !
हृदयस्पर्शी सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 14 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
हटाएंमाता-पिता के ऋण से उऋण भला कैसे हो सकता है कोई ।माता-पिता के सम्मान में समर्पित भाव पूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंVery Nice Post....
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog for new post....