मिलन
जैसे कोई अडिग हिमालय
मन के भीतर प्रकट हो रहा,
उससे मिलना ऐसे ही था
उर उसका ही घटक हो रहा !
छूट गयी हर उलझन पीछे
सम्मुख था एक गगन विशाल,
जिससे झरती थी धाराएँ
भिगो रही थीं तन और भाल !
डूबा था अंतर ज्यों रस में
भीतर-बाहर एक हुआ था,
एक विशुद्ध चाँदनी का तट
जैसे चहूँ ओर बिखरा सा !
अति सम्मोहक, ध्यानस्थ अवस्था में प्रवाहित रसों को महसूसने का प्रयास करती सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसस्नेह।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
अति सुंदर शब्दों में रचना का मर्म बूझकर की गई प्रतिक्रिया ! स्वागत व हार्दिक आभार श्वेता जी !
हटाएंबहुत ही मनमोहक,
जवाब देंहटाएंइतनी सुरम्यता तो अंतरमन में ध्यानस्थ होने पर ही महसूस की जा सकती है, बाहर तो कोलाहल मात्र है ।
सही कह रही हैं आप सुधा जी, २१ दिसंबर को पहली बार 'विश्व ध्यान दिवस' मनाया जा रहा है, श्री श्री ने कहा है, वर्तमान काल में ध्यान के बारे में सभी को बताना बहुत ज़रूरी है
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर मोहक सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण सृजन जो सीधे अन्तर्मन को स्पर्श करता है ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
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