मंगलवार, अप्रैल 8

प्रेम

प्रेम 


प्रेम कहा नहीं जा सकता 

वैसे ही जैसे कोई 

महसूस नहीं कर सकता 

दूसरे की बाँह में होता दर्द 

हर अनुभव बन जाता है 

कुछ और ही 

जब कहा जाता है शब्दों में 

मौन की भाषा में ही 

व्यक्त होते हैं 

जीवन के गहरे रहस्य 

शांत होती चेतना 

अपने आप में पूर्ण है 

जैसे ही मुड़ती है बाहर 

अपूर्णता का दंश 

सहना होता है 

सब छोड़ कर ही 

जाया जा सकता है 

भीतर उस नीरव सन्नाटे में 

जहाँ दूसरा कोई नहीं 

किसी ने कहा है सच ही 

प्रेम गली अति सांकरी !


रविवार, अप्रैल 6

मौन की गूँज

मौन की गूँज 


सन्नाटा बहता जाता है 

नीरवता छायी है भीतर, 

खामोशी सी पसर रही है 

गूंज मौन गूँजे रह-रह कर !


तृप्ति सहज  धारा उतरी ज्यों 

सारा आलम भीग रहा है, 

ज्योति स्तंभ का परस सुकोमल 

हर अभाव को पूर रहा है !


चाहत की फसलें जो बढ़तीं 

काटीं किसने कौन बो रहा, 

जगत का यह प्रपंच सुहाना 

युग-युग से अनवरत चल रहा !


शुक्रवार, अप्रैल 4

भोर

भोर 


 

एक और सुबह 

लायी है अनंत संभावनाएँ 

उससे मिलने की 

अभीप्सा यदि तीव्र हो तो 

कृपा बरसती है अनायास 

खुल जाता है हर द्वार 

झरते हैं प्रकाश पुष्प हज़ार 

वही ज्योति बनेगी मार्गदर्शक 

जगमगा उठेगा कुछ ही देर में 

रवि किरणों से फ़लक 

जग जाएँगे वृक्ष, पर्वत, फूल सभी 

काली पड़ गई धूल सभी 

हर भोर उस सुबह की 

याद दिलाती है 

जिसमें जगकर आत्मा

 नयी हो जाती है !




मंगलवार, अप्रैल 1

अंतहीन सजगता

अंतहीन सजगता 


अपने में टिक रहना है योग  

योग में बने रहना समाधि 

सध जाये तो मुक्ति  

मुक्ति ही ख़ुद से मिलना है 

हृदय कमल का खिलना है 

क्योंकि ख़ुद से मिलकर  

उसे जान सकते हैं 

‘स्व’ से शुरू हुई यात्रा इस तरह 

‘पर’ में समाप्त होती  

पर थमती वहाँ भी नहीं 

जो अनंत है 

अज्ञेय है 

उसे जान 

कुछ भी तो नहीं जानते 

यही भान होता  

अध्यात्म की यात्रा में 

हर पल एक सोपान होता 

हर पल चढ़ना है 

सजग होके बढ़ना है 

कहीं कोई लक्ष्य नहीं 

कोई आश्रय भी नहीं 

अंतहीन सजगता ही

अध्यात्म है 

यही परम विश्राम है 

यहीं वह, तू और मैं का

 संगम है 

यहीं मिट जाता 

हर विभ्रम है !