सोमवार, जून 16

कैसे मन की गागर भरती


कैसे मन की गागर भरती


कितने पल ख़ाली बीते हैं 
अक्सर हम यूँ ही रीते हैं, 
भर सकते थे उर उस सुख से 
जिसकी ख़ातिर ही जीते हैं !

किंतु नज़रें सदा अभाव पर 
कैसे मन की गागर भरती, 
भय से छुपे रहे गह्वर  में 
रिमझिम जब धाराएँ झरती !

निज शक्ति पर डाले पहरे 
निज आनंद की खबर नहीं थी, 
पीठ दिखाकर ज्योति पुंज को 
अंधकार की बाँह गही थी !

जाने कैसा मोह व्याप्त है 
ख़ुद से ही मन दूर भागता, 
दुनिया भर की खोज-खबर ले 
पल भर भीतर नहीं झाँकता !

8 टिप्‍पणियां:

  1. जाने कैसा मोह व्याप्त है
    ख़ुद से ही मन दूर भागता,
    दुनिया भर की खोज-खबर ले
    पल भर भीतर नहीं झाँकता !
    सत्य वचन , अति सुन्दर आध्यात्मिक चिंतन ।

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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति भीतर ही तेजपुँज शक्ति है जो किसी पर भी बलात् अधिकार नहीं जमाती वरन अहंकार शून्य शुध्द परमात्मिक चेतना का वह विस्तार है जो सर्वत्र सर्वदा एक परम संतोष सुख देती है ।

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    1. कितने सुंदर शब्दों में आपने उस परम चेतना का वर्णन किया है,स्वागत व आभार प्रियंका जी !

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  3. स्वयं के भीतर कैसे झाँके
    मनु सदा ही सत्य से भागे
    अंतर्मन रसधार से सूखा
    रीता जीवन घट लिए हाँके
    ------
    बहुत सुंदर दार्शनिक भाव लिए सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर।
    -----

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १७ जून २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  4. वाह, एक चतुष्पदी में आपने कविता का सार लिख दिया, बहुत बहुत आभार श्वेता जी !

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  5. बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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