बुधवार, जून 4

अपना सा दर्द




अपना सा दर्द 

फिर वही झूला, वही ढलती हुई शाम है
कई दिनों बाद मिली दिल को फुर्सत, आया आराम है
आसमां चुप है सलेटी सी चादर ओढ़े
पेड़ खामोश है, हवा भी बंद, नहीं कोई धुन छेड़े
एक खलिश सी भीतर कोई अपना बीमार है
दुआ के सिवा दे न सकें कुछ ये हाथ लाचार हैं
लो एक कार की रफ्तार से पत्तों में हरकत आयी
हिल-हिल के जैसे भेज रहे उसे दवाई
जीवन है तभी तक दिल धड़कते हैं
रोते हैं, हँसते हैं साथ बड़े होते हैं
दो हैं कहाँ जो कोई असर हो दिल पे किसी की बात का
दो हैं कहाँ जो दूजा लगे, अपना सा दर्द है जज्बात का
दुःख कहने से जो भीतर कसक उठती है वह अहम है
या कोई आजमाया हुआ वहम है

13 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! बहुत ही गहरी अनुभूति। सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !

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  3. "दुःख कहने से जो भीतर कसक उठती है वह अहम है" - वहम नहीं है, ये कसक अहम ही है!

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  4. अंतर्मन को कहते हुवे भाव हैं ...

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  5. छायावादी मिस्टिक genre तो कम ही देखने को मिलते है। द्वेत से पर्दा कई बार उठता है, दुआ करिए के वो पल-ए-होश याददाश्त में सुंदर स्मृति के रूप मे बने रहें ! लिखते रहिए!

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