बुधवार, जुलाई 31

चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


मानस की घाटी में श्रद्धा का बीज गिरा
प्रज्ञा की डालियों पर शांति का पुष्प उगा,
मन अंतर सुवास से जीवन बहार महकी  
रिस-रिस कर प्रेम बहा अधरों से हास पगा !

कण-कण में आस जगा नैनों में जोत जली
हुलसा तन का पोर-पोर अनहद नाद बजा,
मधुरिम इक लय बिखरी जीवन संगीत बहा
कदमों में थिरकन भर अंतर में नृत्य जगा !

मुस्काई हर धड़कन लहराया जब वसंत
अपने ही आंगन में प्रियतम का द्वार खुला,
लहरों सी बन पुलकन उसकी ही बात कहे
बिन बोले सब कह दे अद्भुत आलाप उठा !

हँसता है हर पल वह सूरज की किरणों में
चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा,
पल-पल संग वही संवारे सुंदर भाग जगा
देखो यह मस्ती का भीतर है फाग सगा !

युग-युग से प्यासी थी धरती का भाग खुला
सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
वह है वही अपना रह-रह यह कोई कहे
सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !


9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 1.8.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3414 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  2. वाह ! अत्यंत सुन्दर सरस सृजन ! मन भी सुवासित हो गया !

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  3. श्रधा जब अंकुरित होती है मानस के अंतर्मन में तो सम्पूर्ण शरीर प्रकाशमय हो उठता है ... उलास, प्रेम और अनत आशाएं जाग उठती हैं ...

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    1. सही कहा है आपने..स्वागत व आभार दिगम्बर जी !

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  4. आपकी इस ब्लॉगपोस्ट की शानदार चर्चा हमारे ब्लॉग पंच के एपिसोड में की गई है ,

    जिसमे हमने 5 ब्लॉग लिंक पर चर्चा की है और उसमें से बेस्ट ब्लॉग चुना जाएगा पाठको की कमेंट के आधार पर ,चर्चा की गई 5 लिंक में से एक ब्लॉग आपका भी है

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