मृगतृष्णा सा सारा जीवन
जो भी चाहो सब मिलता है
माया का जादू चलता है,
फिर भी जीवन उपवन सूना
दिल का फूल कहाँ खिलता है !
रूप रंग है कोमल स्वर भी
थमकर देखें समय कहाँ,
सपनों का इक नीड़ बनाते
नींद खो गयी चैन गया !
अरमानों को बड़ा सहेजा
चुन-चुन कर नव स्वप्न
संजोये,
बिखर गये सूखे पत्तों से
बरबस ही फिर नयन भिगोये !
कदमों में आशा भर दौड़े
हाथों में था गगन समाया,
किंतु दूर ही रहा क्षितिज
सम
मुट्ठी में कुछ भी न आया !
मृगतृष्णा सा सारा जीवन
पार नहीं इसका मिलता है,
मन मयूर भी सदा डोलता
ज्यों लहरों में शशि हिलता
है !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" मंगलवार 30जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर लेखन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार विभा जी !
हटाएंअनुपम सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर।
स्वागत व आभार !
हटाएंसराहनीय रचना...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रकाश जी !
हटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसादर
स्वागत व आभार अनीता जी !
हटाएंस्वागत व आभार अनुराधा जी !
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी रचना अनीता जी।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार दीपशिखा जी !
हटाएंये माया भी उसी इश्वर की देन है ... अंतस के चक्षु खुद ही खोलने होंगे सब साफ़ दिखाई देगा ... सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंपूर्णतः सत्य वचन..स्वागत व आभर !
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