मंगलवार, अगस्त 30

वैरी भी उन्हें नहीं मिला है




वैरी भी उन्हें नहीं मिला है

तृषा तुम्हारी शांत हुई है
पनघट पर कोई प्यासा भी,
तृप्ति के तुम गीत गा रहे
क्षुधा शेष है अभी किसी की !

मंजिल तक तुम पहुंच चुके हो
पीछे लेकिन पंक्ति बड़ी है,
मुड़ कर जरा निहारो उनको
जिनकी आशा अभी बड़ी है !

चाँद तुम्हें निकट लगता है
 घिरा कहीं है अभी अँधेरा,
बिखरी होंगी स्वर्ण रश्मियाँ
मिला किसी को नहीं सवेरा !

हो समर्थ पर यह न भूलो
कितनों की आशीष मिली थी,
किसी ने पथ के कंटक बीने
अश्रु की कहीं नमी खिली थी !

अमर प्रेम की गाथा लिखते
बैरी भी उन्हे नहीं मिला है,
गीत स्वर्ग के गाते हो तुम
अभी-अभी तो नर्क मिला है !








6 टिप्‍पणियां:

  1. मंजिल तक तुम पहुंच चुके हो
    पीछे लेकिन पंक्ति बड़ी है,
    प्रभावी पंक्तियाँ ,जितनी तारीफ करूं कम है...

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  2. गीत स्वर्ग के गाते हो तुम
    अभी-अभी तो नर्क मिला है !

    बहुत सारगर्भित और प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति..आभार

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  3. हो समर्थ पर यह न भूलो
    कितनों की आशीष मिली थी,
    किसी ने पथ के कंटक बीने
    अश्रु की कहीं नमी खिली थी !

    यही याद हमें विनम्र रखती है ...और दूसरों को राह दिखने में सहायक भी होती है ..बहुत सुन्दर रचना अनीता जी ..बढ़ाई हो आपको

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  4. बहुत खूब ..........शानदार .......आभी-अभी तो नरक मिला है ....वाह|

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  5. इस कविता में निहित द्वन्द्व मन को स्पंदित करता है।

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