चलो घर चलते हैं
बहुत देख लिए दुनिया के रंग ढंग
छूट ही जाता है यहाँ हर संग
चलो घर चलते हैं...
बज रहे हैं जहां ढोल और मृदंग !
कभी शहनाई का स्वर गूंज उठता है
जहां रोशनियों का एक हुजूम उठता है
फिर से आएंगे पाकर नई दृष्टि
नजर आयेगी नई सी यह सृष्टि !
अभी तो सब जगह गोलमाल ही नजर आता है
साहब से ज्यादा चपरासी दमखम दिखाता है
चमचा नेता से ज्यादा उड़ाता है
अपनी ही सम्पत्ति को जलाते हैं नक्सलवादी
चाहते हैं गरीबी की गुलामी से आजादी
नई पीढ़ी कैसी है कुम्हलाई
दिन रात कृत्रिम प्रकाश में आज के बच्चे पलते हैं
चलो घर चलते हैं
थका हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है
उतारता है क्रोध कभी सरकार पर कभी मौसम पर
जले हैं दिये पर नजर को छलते हैं
चलो घर चलते हैं....
आज की सटीक दशा दिखाती अच्छी प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंहम तो आप से प्रेरणा लेते हैं अनीता जी, आप के काव्य में पहली बार कुछ निराशा के श्वर लगे.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुती....
जवाब देंहटाएंनीरज जी, आपको निराशा के पीछे आशा का प्रकाश दिखाने के लिए मैं आज भी सदा की तरह उत्सुक हूँ, जिस घर की बात इस कविता में कही गयी है, वहाँ आशा के फूल ही हैं वह घर हमारे भीतर है.. जिस प्रकाश की झलक बच्चों को नहीं मिल रही वह उनके भीतर के विवेक का प्रकाश है.... बाहर तो सब मिलाजुला शोर है भीतर एक संगीत है, उस संगीत को प्रकाश को बाहर लेन के लिए भीतर जाना है... यही तो परम आशा है...
जवाब देंहटाएंकल 01/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बढ़िया प्रस्तुति ||बधाई ||
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंJi Bahut Abhar Anita ji ... Bilkul sahi kaha aapne.
जवाब देंहटाएंअब आपका ब्लोग यहाँ भी आ गया और सारे जहाँ मे छा गया। जानना है तो देखिये……http://redrose-vandana.blogspot.com पर और जानिये आपकी पहुँच कहाँ कहाँ तक हो गयी है।
जवाब देंहटाएंsundar prstuti...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर अनीता जी........निराशा से आशा की और ले जाती ये पोस्ट बहुत सुन्दर है |
जवाब देंहटाएंसुन्दर,सकारात्मक प्रस्तुति हेतु बधाई
जवाब देंहटाएंGar ghar ajnabi na ho to sukoon mile...
जवाब देंहटाएंsundar kavita..
सच ! आप हममें आशा भरती रहती हैं..
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