पार वह उतर गया
दर्पण सा मन हुआ
गगन भीतर झर गया
सहज सिद्ध प्रेम यहाँ
होश भीतर भर गया
हो सजग जो भी तिरा
पार वह उतर गया
पाप-पुण्य खो गए
वर्तमान हर गया
दिख रहा भ्रम ही है
भाव कोई भर गया
रिक्तता ही जग में है
व्यर्थ मन डर गया
मन जुड़ा जब झूठ से
सत्य फिर गुजर गया
पंचभूतों का प्रपंच
बोध चकित कर गया
सत्य है बहुमुखी
नव आयाम धर गया
मस्त हुई आत्मा
प्रीत कोई कर गया
डूबा जो वह तर गया
बच रहा वह मर गया
बहुत सुंदर आस्था प्रभु में ...
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाएँ एक राह दिखाती हैं ....
आभार.
बहुत सरल व प्रभावी
जवाब देंहटाएंहो सजग जो भी तिरा
जवाब देंहटाएंपार वह उतर गया
बहुत सुन्दर भाव ... अच्छी प्रस्तुति
कल 22/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
वाह ...बहुत ही बढि़या ।
जवाब देंहटाएंछोटे छोटे छंदों में बनी ये मोहक सी कविता बड़ी प्यारी है |
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना |
जवाब देंहटाएंदर्पण सा मन हुआ
जवाब देंहटाएंगगन भीतर झर गया
अद्भुत बिम्ब परिकल्पना!!
आप सभी का आभार ! मनोज जी, आपका ब्लॉग आजकल मुझसे नहीं खुल रहा है, पिछले दो तीन दिनों से केवल नीला रंग देख व गीत ही सुनकर लौटना पड़ता है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया सार्थक अभिव्यक्ति....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव शब्द रचना....
जवाब देंहटाएंहो सजग जो भी तिरा
जवाब देंहटाएंपार वह उतर गया
वाह!
बेहद सुन्दर रचना!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंमर कर भी कुछ है जो फिर -फिर जिन्दा हो जाता है. आज तक मैं इस खेल को समझ नहीं पायी हूँ. वैसे आपने बेहद खुबसूरत लिखा है. बचा हुआ मर जाए तो क्या कहना.
जवाब देंहटाएंहो सजग जो भी तिरा
जवाब देंहटाएंपार वह उतर गया
वाह! कितनी सुन्दर रचना....
सादर बधाई...
अमृताजी, जो मरकर भी नहीं मरता वह तो अमृत तत्व है... पर हम उसे बचाने का प्रयास करते हैं जो अहंकार है...मर मर कर फिर जी उठता है, जिसने इसे बचाया वह प्रभु की राह में मर गया.
जवाब देंहटाएंसंजय जी, मनीष जी, अनुपमा जी व सुषमा जी आप सभी का आभार!
डूबा जो वह तर गया
जवाब देंहटाएंबच रहा वह मर गया....वाह! वाह! वाह!
बेहद सुन्दर रचना.......
behreen rachna prstuti....
जवाब देंहटाएंहो सजग जो भी तिरा
जवाब देंहटाएंपार वह उतर गया
बहुत सरल व सुन्दर भाव...!!