जागा कोई, कौन सो गया
ढूँढ रहा जो तृप्ति जग में
प्यास और भी तीव्र बढ़े,
सूना-सूना सा जीवन वन
जब तक न उससे नयन लड़े !
जब तक कुछ भीतर न पाया
बाहर का सब कुछ फीका है,
मौन उतर जाता जब भीतर
जग भी तब लगता नीका है !
वाणी खो गयी मौन प्रकटता
शब्द निशब्द में ले जाते हैं,
जग भी यह सीढ़ी बन जाता
उस असीम तक हम जाते हैं !
जो कहना था कह न पाया
कह-कह कर मन मौन हो गया
भीतर गूंजी धुन वंशी की
जागा कोई, कौन सो गया !
भीतर बाहर जो मौन है
वह मन लीन हुआ है धुन में,
डूब गया जो उस अनंत में
जागा है बस उस गुन-गुन में !
भीतर बाहर जो मौन है
जवाब देंहटाएंवह मन लीन हुआ है धुन में,
डूब गया जो उस अनंत में
जागा है बस उस गुन-गुन में !
speechless.....amazing.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर भाव लिए बेहतरीन रचना......
जवाब देंहटाएंwelcome to new post--जिन्दगीं--
भीतर बाहर जो मौन है
जवाब देंहटाएंवह मन लीन हुआ है धुन में,
अंतर्यात्रा की कथा ....
प्रभावशाली प्रस्तुती....
जवाब देंहटाएंइमरान, धीरेन्द्र जी, वर्मा जी, व सुषमा जी आप सभी का आभार!
जवाब देंहटाएंआपकी कविता से दूर रहने से लगता है जैसे कुछ खो दिया हो ...पढ़ कर बहुत कुछ मिलाता है ....एक अपार आनंद सा ....!!
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