शुक्रवार, जनवरी 6

जागा कोई, कौन सो गया



जागा कोई, कौन सो गया

ढूँढ रहा जो तृप्ति जग में
प्यास और भी तीव्र बढ़े, 
सूना-सूना सा जीवन वन
जब तक न उससे नयन  लड़े !

जब तक कुछ भीतर न पाया
बाहर का सब कुछ फीका है,
मौन उतर जाता जब भीतर
जग भी तब लगता नीका है !

वाणी खो गयी मौन प्रकटता
शब्द निशब्द में ले जाते हैं,
जग भी यह सीढ़ी बन जाता
उस असीम तक हम जाते हैं !

जो कहना था कह न पाया
कह-कह कर मन मौन हो गया
भीतर गूंजी धुन वंशी की
जागा कोई, कौन सो गया !

भीतर बाहर जो मौन है
वह मन लीन हुआ है धुन में,
डूब गया जो उस अनंत में
जागा है बस उस गुन-गुन में !  

6 टिप्‍पणियां:

  1. भीतर बाहर जो मौन है
    वह मन लीन हुआ है धुन में,
    डूब गया जो उस अनंत में
    जागा है बस उस गुन-गुन में !

    speechless.....amazing.

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  2. बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर भाव लिए बेहतरीन रचना......
    welcome to new post--जिन्दगीं--

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  3. भीतर बाहर जो मौन है
    वह मन लीन हुआ है धुन में,
    अंतर्यात्रा की कथा ....

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  4. इमरान, धीरेन्द्र जी, वर्मा जी, व सुषमा जी आप सभी का आभार!

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  5. आपकी कविता से दूर रहने से लगता है जैसे कुछ खो दिया हो ...पढ़ कर बहुत कुछ मिलाता है ....एक अपार आनंद सा ....!!

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