तब भी तू अपना था
तब
भी तू अपना था
लगता
जब सपना था,
दूर
तुझे मान यूँ ही
नाम
हमें जपना था !
चाहत
कहो इसको
या
घन विवशताएँ,
दोनों
ही हाल में
दिल
को ही फंसना था !
स्मृतियों
की अमराई
शीतल
स्पर्श सी,
वरन्
विरह आग में
जीवन
भर तपना था !
तेरी
तलाश में
छूट
गए मीत कुछ,
मिथ्या
अभिमान में
पत्ते
सा कंपना था !
पेंदी
में छेद है
नजर
मन पे पड़ी,
इसको
भरते हुए
व्यर्थ
ही खपना था !
बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन कविता हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ||
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंपेंदी में छेद है
नजर मन पे पड़ी,
इसको भरते हुए
व्यर्थ ही खपना था !
बहुत सुन्दर अनीता जी....
आपकी रचनाओं पर टोटल फ़िदा हूँ
:-)
अनु
बहुत ही सुन्दर रचना...अनीता जी..आभार
जवाब देंहटाएंतेरी तलाश में
जवाब देंहटाएंछूट गए मीत कुछ,
मिथ्या अभिमान में
पत्ते सा कंपना था !
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ....कई बार पढ़ी ....!!
आभार अनीता जी ...
तेरी तलाश में
जवाब देंहटाएंछूट गए मीत कुछ,
मिथ्या अभिमान में
पत्ते सा कंपना था !
सुन्दर रचना...
सादर
wah Anita ji ....bilkul lajabab prastuti
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