जमीन से जुड़े लोग
आपके पावों में अभी
चुभा नहीं है कांटा
दर्द आप कैसे जानेंगे
फूंक फूंक कर पीते हैं वे छाछ भी
दूध के जले हैं, इतना तो मानेंगे....
नहीं लगी आग कभी
आलीशान महलों में आपके
फूस की झोंपड़ी थी, जल गयी
बस कहकर यह, लंबी तानेंगे...
पानी बाढ़ का भला, कैसे
करे हिमाकत
चढ़ने की सीढियाँ, महलों की आपके
गाँव के गाँव डूब गए जिसमें
उस सैलाब को
उड़ के आसमां से जानेंगे...
सुलगती रेत में जले नहीं
तलवे जिनके
क्या जानेंगे वे राज माटी का
बरसती आग में न झुलसे तन
बरसते सावन का मजा
खाक जानेंगे...
बारिशें उड़ा ले गयीं न छप्पर जिनका
कैसे भिगोएँगे भला, बादल उनको
उगाते हैं जमीं से जो सोना
पसीने को उन्हीं के, धोयेंगे बादल
कडकती शीत में न कटकटायीं
हाड़ें जिनकी
तपिश अलाव की, न दे पायेगी सुकून
गल न गयीं बर्फ में
उंगलियाँ जिसकी
क्या कदर होगी गर्म वस्त्रों की उसे...
मुश्किलों से जो दो चार हुआ करते हैं
वही श्वासों की कीमत अदा करते हैं
जमीन से जुड़े हैं जो लोग यहाँ
वही जगत की जीनत बना करते हैं !
बहुत सशक्त लेखन ... अच्छी प्रस्तुति ....गरीबों की व्यथा भला महलों में रहने वाले कहाँ समझेंगे ?
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 28 -06-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... चलो न - भटकें लफंगे कूचों में , लुच्ची गलियों के चौक देखें.. .
Lovely.....
जवाब देंहटाएंजिंदगी समझने के लिए संघर्ष में आकंठ डूबना हीं होता है...सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंआप सभी का तहे दिल से शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंsahaz aur sunder kavita......
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बहुत ही उम्दा है पोस्ट....हैट्स ऑफ इसके लिए।
जवाब देंहटाएंसार्थक/प्रभावी रचना....
जवाब देंहटाएंसादर।
जमीन पर ही जड़े फैलती है...इससे कट कर कोई कैसे विकास कर लेता है...सुन्दर रचना..
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