अब जब
अब जब कुछ करने को नहीं है
तो समय की अनंत राशि बिखरी हुई है
चारों ओर...
अब जब कहीं जाना नहीं है
दूर तक सीधी सुकोमल राह बिछी है
फूलों भरी...
अब जब सुनने को कुछ शेष नहीं रह गया
उपवन गुंजाता है भीतर अहर्निश कोई रागिनी
गूंजते हैं मद्धिम मद्धिम पायल के स्वर...
अब जब देखने की चाह नहीं है
नित नए रंगों में रूप दीखता है
लुभाती है इठलाती हुई प्रकृति....
अब जब कि कुछ पाना नहीं है
सारा अस्तित्व ही पनाह लेता दीखता है भीतर
आँख मूंदते ही...
अब जब कि कुछ जानना नहीं है
वह आतुर है अपने रहस्य खोलने को....
अब जब कि कुछ जानना नहीं है
जवाब देंहटाएंवह आतुर है अपने रहस्य खोलने को....
एक शांति प्रदान करती मनमोहक अभिव्यक्ति ....
बहुत सुंदर रचना अनीता जी ...
अनुपमा जी, आपका स्वागत है..
हटाएंअब जब कि ..अति सुन्दर लिखा है..
जवाब देंहटाएंआभार..अमृताजी !
हटाएंप्रभावित करती रचना .
जवाब देंहटाएंसुषमा जी, शुक्रिया..
हटाएंhttp://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_19.html
जवाब देंहटाएंरश्मि जी, बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...आभार
जवाब देंहटाएंकैलाश जी, स्वागत व आभार!
हटाएंकुछ न करना ही ठहर जाना है .........बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंइमरान, आपने सही कहा...यह ध्यान का सूत्र है..
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