इक दिया, कुछ तेल, बाती
खो गया है कोई घर में चलो उसको ढूँढ़ते हैं
बह रहा जो मन कहीं भी बांध कोई बाँधते हैं
आँधियों की ऊर्जा को पाल में कैसे समेटें
उन हवाओं से ही जाकर राज इसका पूछते हैं
इक दिया, कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास हैं
उन अंधेरों से डरें क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं
हँस दे पल में पल में रोए मन शिशु से कम नहीं
दूर हट के उस नादां की हरकतें हम देखते हैं
कुछ न खुद के पास लेकिन ऐंठ में अव्वल है जो
उस अकड़ को शान से कपड़े बदलते देखते हैं
इक दिया, कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास हैं
जवाब देंहटाएंउन अंधेरों से डरें क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं
प्रेरक रचना ।
सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंwaaaaah waaah behtrin sher huva hai .....
जवाब देंहटाएं...bhot khub
जवाब देंहटाएंनिखरा हुआ-सा लेखन !
सुन्दर प्रेरक रचना ।
जवाब देंहटाएंहँस दे पल में पल में रोए मन शिशु से कम नहीं
जवाब देंहटाएंदूर हट के उस नादां की हरकतें हम देखते हैं
वाह बहुत सुन्दर.......
इक दिया, कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास हैं
जवाब देंहटाएंउन अंधेरों से डरें क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं
शानदार प्रस्तुति
लाजवाब, उम्दा, बहुत खूब भाव पिरोये शब्दों में | आभार
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इक दिया, कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास हैं
जवाब देंहटाएंउन अंधेरों से डरें क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं
....वाह! बहुत सुन्दर प्रभावी रचना...
जवाब देंहटाएंवाह ,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .शुभकामनायें.
खो गया है कोई घर में चलो उसको ढूँढ़ते हैं
जवाब देंहटाएंबह रहा जो मन कहीं भी बांध कोई बाँधते हैं.
सुंदर भाव लिये खूबसूरत कविता.
रचना जी, कैलाश जी, तुषार जी, मदन जी, यशोदा जी, संगीता जी, मीनाक्षी जी, अशोक जी, इमरान, प्रतिभाजी, माहेश्वरी जी, वन्दना जी आप सभी का हार्दिक आभार व् स्वागत !
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