गुरुवार, सितंबर 5

वक्त की चादर


वक्त की चादर


सामने बिछी है वक्त की चादर
अपनी चाहतों के बूटे काढ़ सको
तो काढ़ लो !
क्योंकि वक्त..
मुट्ठी से रेत की तरह
फिसल जायेगा
 और फिर कीमत चुकानी होगी
निज स्वप्नों से !

सुंदर, श्वेत चादर पर
 रंगीन बूटे
हौसला बढ़ाएंगे दूर तक
साथ रहेगी उनकी सुघड़ता
खुशनुमा हो जाएगा  सफर
 रेशमी धागों की सरसराहट से !

 सिमट जाये ये चादर इसके पूर्व
 उकेर दो... अपनी चाहतों के बूटे !



18 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति -
    आभार आपका-

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  2. आपने लिखा....हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 07/089/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!

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  3. वाह कितने सुन्दर बिम्ब हैं..... शानदार

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  4. सिमट जाये ये चादर इसके पूर्व
    उकेर दो... अपनी चाहतों के बूटे !

    ...बहुत सुन्दर और प्रेरक अभिव्यक्ति...

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  5. चादर ने तो आँखों को ही थाम लिया..आह...

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  6. बहुत सुन्दर है यह रचना वक्त कब किसका इंतज़ार करता है जो करना है कर डालो।

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  7. सुन्दर सन्देश । वस्तुतः हमें हर दिन को नया जन्म समझना चाहिए ।

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  8. इस कविता में यथार्थ और कल्पना का अद्भुत समन्वय है. वक़्त की धीरे-धीरे सिमटती चादर और बूटे काढ़ते लोगों के बारे में सोचना मन को ख़ुशी ही देता है. कविता की सहजता के बाद भी रचना की गहराई कम नहीं होती है. बूटे काढ़ने के साथ-साथ निकालने वालों की मोजूदगी जीवन को सच के समीप लाती है. लेकिन उम्मीद की रौशनी बेहतर करने की प्रेरणा देती है.बेहतरीन.बहुत-बहुत शुक्रिया सुंदर रचना के लिए.

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    1. वृजेश जी, स्वागत व आभार इस सुंदर टिप्पणी के लिए..

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  9. आप सभी सुधी जनों का तहे दिल से आभार !

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