आदमी फिर भी भटकता है
राहबर आये हजारों इस जहाँ में
आदमी फिर भी भटकता है !
जरा सी बात पर भौहें चढ़ाता यह
फिर शांति की राह तकता है !
आदतों के जाल में जकड़ा हुआ पर
मुक्तियों के गीत गढ़ता है !
खुद ही गढ़ता बुत उन्हीं ही मांगता
जाने कितने स्वांग भरता है !
इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
शांति के वास्ते युद्ध करता है !
उलटे-सीधे काम भी होते रहेंगे
रात-दिन जब शंख बजता है !
कितनी गहरी नींद में सोता है आदमी कि राहबर भी जगा नहीं पाते हैं.. क्या यही हमारी नियति है ?
जवाब देंहटाएंअमृता जी, हमारी नियति तो जागरण है...बस जागरण
हटाएंयही विसंगतियाँ जीवन का सहज प्रवाह बाधित करती हैं .
जवाब देंहटाएंइनके पार जाना है
हटाएंविसंगतियों की सटीक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंइस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
जवाब देंहटाएंशांति के वास्ते युद्ध करता है !.........आदमी की मूढता पर प्रश्नचिह्न लगाती बहुत बढ़िया कविता |
बेहतरीन रूपक आज के वक्त का :
जवाब देंहटाएंइस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
शांति के वास्ते युद्ध करता
इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
शांति के वास्ते युद्ध करता है !
राहबर आये हजारों इस जहाँ में
जवाब देंहटाएंआदमी फिर भी भटकता है !
...बिल्कुल सच...बहुत सार्थक प्रस्तुति...
इमरान, वीरू भाई, कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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