शुक्रवार, फ़रवरी 21

आदमी फिर भी भटकता है

आदमी फिर भी भटकता है

राहबर आये हजारों इस जहाँ में
आदमी फिर भी भटकता है !

जरा सी बात पर भौहें चढ़ाता यह
फिर शांति की राह तकता है !

आदतों के जाल में जकड़ा हुआ पर
मुक्तियों के गीत गढ़ता है !

खुद ही गढ़ता बुत उन्हीं ही मांगता
जाने कितने स्वांग भरता है !

इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
शांति के वास्ते युद्ध करता है !

उलटे-सीधे काम भी होते रहेंगे
 रात-दिन जब शंख बजता है !

9 टिप्‍पणियां:

  1. कितनी गहरी नींद में सोता है आदमी कि राहबर भी जगा नहीं पाते हैं.. क्या यही हमारी नियति है ?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अमृता जी, हमारी नियति तो जागरण है...बस जागरण

      हटाएं
  2. यही विसंगतियाँ जीवन का सहज प्रवाह बाधित करती हैं .

    जवाब देंहटाएं
  3. विसंगतियों की सटीक अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
    शांति के वास्ते युद्ध करता है !.........आदमी की मूढता पर प्रश्नचिह्न लगाती बहुत बढ़िया कविता |

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन रूपक आज के वक्त का :


    इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
    शांति के वास्ते युद्ध करता

    इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
    शांति के वास्ते युद्ध करता है !

    जवाब देंहटाएं
  6. राहबर आये हजारों इस जहाँ में
    आदमी फिर भी भटकता है !
    ...बिल्कुल सच...बहुत सार्थक प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  7. इमरान, वीरू भाई, कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !

    जवाब देंहटाएं