पढ़ पाते बूंदों की भाषा
बरसे मेघा भीगा अंतर
कोंपल-कोंपल खिली हृदय की,
टिप-टिप रिमझिम बूंदों के स्वर
सुन लहरायी धड़कन दिल की !
जाने कौन लोक से लाये
मेघ संदेसा उस प्रियतम का,
झूम रहे हैं पादप, तरुवर
पढ़ पाते बूंदों की भाषा !
हैं सुकुमार पुष्प बेला के
सहज मार वारि की सहते,
नभचर छिपे घनी शाखा में
चकित हुए से अम्बर तकते !
दूर हैं जो प्रियजन निज घर से
स्मृति दिलाती झड़ी सुहानी,
शीतल, निर्मल सी इक आभा
पहुंचे उन तक अनकथ वाणी !
धरा उमगती खिलखिल हँसती
पाकर परस नेह का सजती,
खेली जाती एक नाटिका
तृप्त हो रही तृषा युगों की !
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार व स्वागत रविकर जी
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