विपासना का अनुभव
ग्यारह फरवरी की एक शांत दोपहरी को दो बजे कोलकाता के IIM से सोदपुर स्थित विपासना
केंद्र ‘धम्म गंगा’ के लिए रवाना हुई. तीन दिन पहले ही हम वहाँ आए थे. पतिदेव की
ट्रेनिंग दो दिन पहले ही शुरू हो चुकी थी और मुझे अगले दस दिनों के लिए मन की
ट्रेनिंग के लिए जाना था. विपासना के बारे में कई वर्षों से सुनती आ रही थी. यह
ध्यान की एक गहन प्रक्रिया है जिसमें मन को गहराइयों तक जाकर देखते हैं और भीतर छिपे
संस्कारों में परिवर्तन सम्भव होते हैं. गोयनका जी को वर्षों पहले टीवी पर सुना
था, तब से इस कोर्स के बारे में एक छवि मन में बसा ली थी और जब ऐसा अवसर आया कि दो
हफ्तों के लिए कोलकाता में रहना था तो झटपट नेट पर कोर्स के स्थान के बारे में
आवश्यक जानकारी लेकर अपना नाम लिखवा दिया था. जाने से पहले एक अनजाना सा भाव मन
में था, पर विश्वास था कि कठिन नहीं होगा दस दिनों का यह साधना काल. कोलकाता से
लगभग तीस किमी दूर गंगा के तट पर स्थित केंद्र तक पहुंचने में दो-ढाई घंटे लग गये.
वहाँ पहुँचकर एक मूढ़तापूर्ण कार्य किया, जिसने सिद्द कर दिया कि इस कोर्स को करने
की कितनी अधिक जरूरत है. ड्राइवर को बाहर छोड़कर लोहे के गेट के बायीं तरफ से अंदर
पता करने के लिए चली गयी कि कार अंदर जा सकती है या नहीं, लौटी तो कार नदारद थी, जिस
गली से हम आये थे, उसमें कहीं नजर नहीं आ रही थी. मन के भीतर छिपा भय का संस्कार सामने
आ गया, गोयनका जी कहते हैं कोई भी विकार जगा कि दुख का कारण ही बनता है. अब भय जगा
तो झट प्रतिक्रिया हुई, पतिदेव को फोन कर दिया बिना यह सोचे कि इतनी दूर से वह
क्या सहायता करेंगे, खैर उनके आशाजनक शब्दों ने विश्वास दिलाया, ड्राइवर दूसरी गली
में जाकर गाड़ी मोड़ने चला गया था. वह वापस आया तो मन ही मन उससे क्षमा मांगी. धैर्य
का दामन छोड़कर जो मन झट प्रतिक्रिया करने में जुट जाता है वह गलत निर्णय पर ही
पहुंचता है. यह पाठ आते ही सीख लिया था.
खैर, भीतर पहुंच कर काफी समय औपचारिकताओं में
बीतता गया. फार्म भरवाया गया, प्यास भी लग रही थी और लम्बे सफर से सिर में हल्का
दर्द भी था. आखिरकार कमरा मिला, कमरे का नम्बर आठ था, जो अगले दस दिनों के लिए
आवास बनने वाला था. एक युवा बंगाली लड़की जो बैंगलोर में रहकर जॉब करती है, पर उसका
घर कोलकाता में है, उस कमरे में पहले से ही थी. उसने दो-चार बातें ही की होंगी कि
पता चला ऑफिस में जाकर मोबाइल व अन्य कीमती सामान लॉकर में रखवाने हैं. वहीं पता
चला छह बजे घंटा बजेगा तब नाश्ता व चाय मिलेगी, जो आज का अंतिम भोजन होगा. शाम का
वक्त था, सूर्यास्त का समय. केंद्र का बगीचा जहाँ खत्म होता था, वहाँ बरगद के एक
विशाल वृक्ष के चारों तरफ एक बड़ा चबूतरा था. जिसपर चढ़कर गंगा का चौड़ा पाट देखा.
नदी का शांत पानी और उस पर नाचती हुई छोटी-छोटी लहरें, सूर्य की लाल रश्मियाँ उन
लहरों के साथ नृत्य करती हुई बहुत आकर्षक लग रही थीं. अगले कुछ दिनों तक रोज ही
शाम को बल्कि दिन में कई बार गंगा को निहारना मेरा प्रिय कार्य बन जायेगा यह उस
वक्त मालूम नहीं था. उसी वृक्ष के नीचे तितलियों से गुफ्तगू भी रोज का हिस्सा बन
जाएगी यह भी नहीं जानती थी. जैसे ही शाम के वक्त वहाँ जाती, हवा चल रही होती और
जाने कहाँ से उड़ती-उड़ती दो काली तितलियाँ आ जातीं और कभी सिर कभी बांह पर बैठ जाती
थीं, आश्चर्य होता था, भरोसा भी होता था कि परमात्मा ही उनके द्वारा संदेश भेजता
है. कुछ पंक्तियाँ तभी एक दिन जेहन में आई थीं-
तितलियाँ
परमात्मा की दूत होती हैं
पुष्प उसके
चरणों की शोभा बढ़ाते हैं
उन पुष्पों पर
मंडराती हैं
तितलियाँ
परमात्मा का संदेश ले आती हैं
क्रमशः