लद्दाख – धरा पर चाँद-धरा
२ जुलाई
कल शाम चाय पीकर हम
ऊंट सफारी के लिए तैयार हुए. कुछ ही दूरी पर वह स्थान था. रेतीले मैदान जो मार्ग
में दूर से लुभा रहे थे अब निकट से देख पाए. लगभग २५-३० सजे हुए ऊंट थे जिनपर लाल
अथवा गहरे रंगों की गद्दियाँ लगी थीं. दूर एक लाल झंडा लगा था जहाँ तक जाकर ऊंट
चालक वापस मुड़ते हैं और एक उचित स्थान देखकर तस्वीरें उतारते हैं. हमारे ऊंट चालक
ने हर कोण से चार-पांच तस्वीरें लीं जैसे कोई प्रशिक्षित फोटोग्राफर हो. वहाँ से
लौटकर हम उस तम्बू में गये जहाँ से संगीत की ध्वनि आ रही थी. विभिन्न पोशाकों में
नृत्यांगनाओं ने सहज मुद्राओं में स्वयं गीत गाकर नृत्य दिखाया. अनेक पर्यटकों के
साथ हमने भी लद्दाखी लोक नृत्य का आनंद लिया. उनके बोल मधुर थे और समझ में न आने
पर भी एक पवित्रता का अनुभव करा रहे थे. उनके हाथों का संचालन ही मुख्य था, शरीर
सीधा ही रहता है तथा नृत्य धीमी गति से चलता है. हमने कुछ समय वहाँ बिताया और एक लद्दाखी
पोषाक पहन कर तस्वीर भी खिंचाई.
बाहर निकले तो देखा रेतीले मैदान में एक तरफ
भेड़ों-बकरियों का एक रेवड़ हरी-घास व कांटेदार वृक्षों के पत्ते खा रहा था. लगभग दो
घंटे वहाँ बिताकर हम लौट आये, कुछ देर के विश्राम के बाद साढ़े सात बजे भोजन कक्ष
में पहुंचे. टमाटर सूप और पापड़ से शुरुआत की, भोजन में मुगल नामका एक स्थानीय साग
भी था जो वहाँ काम करने वाली महिला ने अपने घर में बिना किसी रासायनिक खाद के बनाया
था यानि ऑर्गैनिक. अरहर की घुली हुई दाल, पनीर-मटर, पास्ता तथा फुल्के... इतनी
दूरस्थ जगह में इतनी कठिन परिस्थितियों में इतना स्वादिष्ट भोजन मिल सकता है हमें
उम्मीद नहीं थी. रात को सोये तो नदी की कलकल धारा जैसे लोरी सुना रही हो. हल्की
बूंदा-बांदी भी शुरू हो गयी थी, जो तम्बू की छत पर गिरती हुई टपटप आवाज से असम की
याद ले आई.
सुबह उठे थे तो
जल्दी से जैकेट-टोपी आदि पहनकर बाहर निकले थे, पंछियों की मधुर ध्वनियाँ आकर्षित
कर रही थीं. पीले व काले पंखों वाली एक चिड़िया यहाँ बहुतायत से मिलती है जैसे और
जगह गौरैया. आकार में उससे कुछ बड़ी है. हमने उसकी कई तस्वीरें लीं, यहाँ मैगपाई
नहीं दिखा पर काले रंग का पीली चोंच वाला एक बड़ा पक्षी था. हम उस जल से जो स्फटिक के
समान स्वच्छ था, सीधा ग्लेशियर से आ रहा
था और सूर्य की किरणों से गर्म किया गया था, नहाकर ताजगी का अनुभव कर रहे थे.
नाश्ता भी उतना ही लाजवाब था, लाल तरबूज, कॉर्न फ्लेक्स, उपमा, पनीर व आलू परांठा
तथा छोले, चाय या काफ़ी.
साढ़े आठ बजे तैयार होकर गाड़ी में बैठ चुके थे पनामिक जाने
के लिए, जहाँ गर्म पानी के चश्मे हैं. रस्ते में सूमुर गाँव भी आया जहाँ
वापसी में हमें रुकना था. पनामिक का ३५ किमी का रास्ता बहुत मनोरम है. रेतीले बालू
भरे तट तथा बड़े-बड़े पत्थर, ऊंचे नंगे पहाड़ तो कभी हरे-भरे खेत. नुब्रा नदी भी
साथ-साथ बह रही थी. एक घंटे की यात्रा के बाद हम उस स्थान पर पहुंचे. तीन विभिन्न
स्रोतों से पानी निकल रहा था, भाप भी नजर आ रही थी, छूकर देखना चाहा पर तापमान
काफी अधिक था, कुछ लोग उसमें पैकेट वाला भोजन भी पका रहे थे. हमें कई जगह गुजराती
पर्यटक मिले थे, यहाँ भी उनकी भाषा से ऐसा लगा. दूर घाटी में सरसों के पीले खेत भी
नजर आये. किसी बीते समय जब बाहरी दुनिया से लद्दाख का कोई संपर्क नहीं था, यहाँ के
निवासी जौ और सरसों से काम चलाते थे, भेड़ों की ऊन से बने वस्त्र स्वयं ही बुनते थे
जिन्हें पट्टू कहते हैं.
पनामिक से लौटकर हम सूमुर गाँव के गोम्पा पहुंचे जहाँ कोई
प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता. गोम्पा अपेक्षाकृत बाहर से आधुनिक लगता है तथा सेब व
खुबानी आदि फलों के कई वृक्ष अहाते में लगे हैं.
हमने कुछ तस्वीरें लीं, फिर मुख्य कक्ष में गये जहाँ भगवान बुद्ध की विशाल
मूर्ति थी तथा तारा की दो मूर्तियाँ थीं. मंजुश्री तथा वज्रपाणि की भी एक-एक
मूर्ति थी. बौद्ध धर्म के बारे में कुछ जानकारी वहाँ के लामा ने दी जो एक पुस्तक
पढ़ रहे थे पर प्रश्न पूछने पर सहजता से जवाब देने लगे. कक्ष से बाहर निकले तो एक
वृद्ध लामा आते हुए दिखाई दिए, ‘जूले’ कहने पर मुस्कुरा कर उन्होंने भी जवाब दिया.
शेष हर तरफ एक गहन शांति छायी हुई मिली. सूमुर गाँव से हम चले तो सीधे खरदुम गाँव
में रुके जहाँ पुनः पहले दिन की तरह चाय मिली. आज यात्री बहुत ज्यादा थे सो चाय
में दालचीनी का स्वाद नहीं आया तथा चीनी भी अधिक थी. एक साथ बीसियों लोगों के लिए
चाय बनाना कोई आसान काम तो नहीं. लोग मैगी का आर्डर भी दे रहे थे, हर ब्रांड के
नूडल्स को मैगी ही कहा जाता है यहाँ. खर्दुन्गला दर्रे तक हम पहुंचे तो दोपहर के
दो बजे थे. इस बार गाड़ी में बैठ-बैठे ही
हमने कुछ तस्वीरें लीं तथा वापसी की यात्रा का आरम्भ किया.
नदियाँ, पहाड़, हिमपात तथा वर्षा के दृश्य समेटे वापस पौने चार बजे
लेह लौटे. खर्दुन्गला से पहले ही हिमपात शुरु हो गया था. बर्फ के सूक्ष्म कण कार
की जरा सी खुली खिड़की के शीशे से भी अंदर आ रहे थे. कितने ही मोटरसाइकिल चालक दिखे
जो इसी खराब मौसम में फिसलन भरी सड़क पर अपनी जान को जोखिम में डाल रहे थे. उनको
देखकर उनकी बहादुरी पर रश्क भी होता था और करुणा भी. भगवान बुध के इस पावन स्थल पर
सभी एक-दूसरे के लिए सद्भावना से भरे नजर आए. यहाँ कोई ऊंची आवाज में बात करता नजर
नहीं आया, लोग विनम्र हैं, तथा धर्म उनके लिए जीवन का अभिन्न अंग है, धर्म तथा
जीवन दो अलग-अलग बातें नहीं हैं.