शुक्रवार, सितंबर 11

एक और अनेक


एक और अनेक

जैसे आकाश एक बाहर है चहुँ ओर
वैसा ही भीतर है..
जिसमें चमकता है एक सूरज
मन के पानियों को जो
उड़ा ले जाता है द्युलोक में
भाव सुगंध भरे
फिर बरस जाती है धारा तृप्ति की
तन की माटी लहलहाने लगती है
बाहर और भीतर का आकाश
कहने को ही दो हैं
वैसे ही जैसे बाहर और भीतर का सूरज
एक पानी से दूसरे का गहरा नाता है
और पुष्प की गंध से भाव सुगंधि का
एक ही है जो अनंत होकर जीता है
पल-पल की खबर रखता वह जादूगर
जाने कैसे यह खेल रचता है ! 

8 टिप्‍पणियां:

  1. जितना कुछ बाहर दिखता उतना ही सब कुछ भीतर होता है सिर्फ महसूस करने कि आवयश्कता होती है
    गहन भाव सुन्दर प्रस्तुति

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  2. वैसे ही जैसे बाहर और भीतर का सूरज
    एक पानी से दूसरे का गहरा नाता है
    सच है गहरा नाता ही तो है

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  3. अतिसुन्दर काव्य जिसमें सृष्टि का एक रहस्य जो अपना आवरण थोड़ा सा हटा रहा है और हमें आनंद में डुबा रहा है .

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  4. इस एकात्म का अनुभव ही आनंद का स्रोत है...बहुत सुन्दर और प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  5. जे जे पिंड़े सोई ब्रह्मांडे - वास्तविकता यही है .

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