शुक्रवार, अक्तूबर 30

आयी रुत हेमंत की

आयी रुत हेमंत की

सुने होंगे गीत बसंत के कई
शरद की बात भी की होगी
है हेमंत भी उतना ही सलोना
रूबरू शायद नहीं.. यह रुत हुई होगी  
 सुबह हल्की धुंध में ढकी
पर शीत अभी दूर है
भली लगे तन पर जो
बहती शीतल पवन जरूर है
सहन हो सकती है धूप अब
क्यारियां खुद गयीं बगीचों में
हो रही पौध की तैयारी
बसंत की रौनक आखिर
हेमंत की है जिम्मेदारी
आने ही वाली है कार्तिक की अमा
जल उठेगी जब कोने कोने
माटी के दीयों में शमा 
मौसम बदल रहा है
कितना खूबसूरत युग-युग से
 प्रकृति का चलन रहा है 

सोमवार, अक्तूबर 26

मौन की नदी

मौन की नदी

तेरे और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है
बस इसी प्रतीक्षा में... दिन गुजरते रहे
तुझे पाने के स्वप्न मन में पलते रहे
एक मदहोशी थी इस ख्याल में
तू आयेगा इक दिन इस बात में
और आज वह आस टूटी है
हर कशमकश दिल से छूटी है
अब न तलाश बाकी है न जुस्तजू तेरी
कोई आवाज भी नहीं आती मेरी
खोजी थे जो.. कहीं नहीं हैं वे नयन
शेष अब न विरह कोई न वह लगन ! 

बुधवार, अक्तूबर 14

देखो पल में कहाँ खो गया

देखो पल में कहाँ खो गया


बड़ी-बड़ी बातें करता था
पा के रहेंगे दम भरता था
था कितना दीवाना सा दिल
मुट्ठी में रेत भरता था !

बात-बात पर रूठा करता
घड़ी-घड़ी जो टूटा करता
था कितना अनजाना सा दिल
अपना दामन आप धो गया !

अपना कद ऊंचा करने की
ज्ञान निधि भीतर भरने की
तिकडम सदा लगाता जो दिल
स्वयं ही तो शून्य हो गया !

इसे बता दे उसे जता दे
इसे सिखा दे उसे धता दे
 इसी जोड़तोड़ में रहता
दिल बेचारा धूल हो गया !

मिटकर ही चैन पाया है
लौट के अपने घर आया है
एक बबूला ही तो था दिल
पल भर में ही हवा हो गया !

कितने ही दावे कर डाले
महल हवा में ही गढ़ डाले
पानी में दीवारें चुनता
अन्तरिक्ष में कहीं खो गया !


मंगलवार, अक्तूबर 13

शुभकामनायें



शुभकामनायें 

समय के कुंड में.. डलती रही
प्रीत की समिधा
दो तटों के मध्य में.. बहती रही
प्रीत की सलिला
बीत गये चार दशक कई पड़ाव आए
पुहुप कितने भाव से जग में उगाए
भाव सुरभि है बिखरती
नव कलिकायें विहंसती
जिंदगी अब खिल रही है
चल रहा है इक सफर
मीत मन का साथ हो तो
सहज हो जाती डगर !
लें बधाई आज दिल में
स्वप्न की ज्योति जलेगी  
 मिल मनाएंगे दिवस फिर
जब जयंती स्वर्ण होगी !

बुधवार, अक्तूबर 7

हम तो घर में रहते हैं


हम तो घर में रहते हैं

जग की बहुत देख ली हलचल
कहीं न पहुँचे कहते हैं,
पाया है विश्राम कहे मन
हम तो घर में रहते हैं !

जिसके पीछे दौड़ रहा था
छाया ही थी एक छलावा,
घर जाकर यह राज खुला
माया है जग एक भुलावा !

कदम थमे तब दरस हुआ
प्रीत के अश्रु बहते हैं,
रूप के पीछे छिपा अरूप
उससे मिलकर रहते हैं !

सोमवार, अक्तूबर 5

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा 

प्रतीक्षा का एक मौन क्षण
जहाँ कोई स्पंदन नहीं
उसका द्वार है
प्रतीक्षा यदि मिली हो थकहार कर
तो मिल जाती है पगडंडी वह
जिस पर चलना नहीं होता
कदम रखते ही अहसास होता है
मंजिल का
प्रतीक्षा पावन है 

गुरुवार, अक्तूबर 1

बापू की पुण्य स्मृति में

बापू की पुण्य स्मृति में


रामनाम में श्रद्धा अटूट, सबका ध्यान सदा रखते थे
माँ की तरह पालना करते, बापू सबके साथ जुड़े थे !

सारा जग उनका परिवार, हँसमुख थे वे सदा हँसाते
योग साधना भी करते थे, यम, नियम दिल से अपनाते !

बच्चों के आदर्श थे बापू, एक खिलाड़ी जैसा भाव
हर भूल से शिक्षा लेते, सूक्ष्म निरीक्षण का स्वभाव !

निर्धन के हर हाल में साथी, हानि में भी लाभ देख लें
सोना, जगना एक कला थी, भोजन नाप-तोल कर खाते !

छोटी बातों से भी सीखें, हर वस्तु को देते मान
प्यार का जादू सिर चढ़ बोला, इस की शक्ति ली पहचान !

समय की कीमत को पहचानें, स्वच्छता से प्रेम बहुत था
मेजबानी में थे पारंगत, अनुशासन जीवन में था !

पशुओं से भी प्रेम अति था, कथा-कहानी कहते सुनते
मितव्ययता हर क्षेत्र में, उत्तरदायित्व सदा निभाते !

मैत्री भाव बड़ा गहरा था, पक्के वैरागी भी बापू
थी आस्था एक अडिग भी, बा को बहुत मानते बापू !

विश्राम की कला भी सीखी, अंतर वीक्षण करते स्वयं का
एक महान राजनेता थे, केवल एक भरोसा रब का !

अनासक्ति योग के पालक, परहित चिन्तन सदा ही करते
झुकने में भी देर न लगती, अड़े नहीं व्यर्थ ही रहते !

करुणा अंतर में गहरी थी, नव चेतना भरते सबमें
प्रेम करे दुश्मन भी जिससे, ऐसे प्यारे राष्ट्रपिता थे !