मौन
की नदी
तेरे
और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात
जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब
राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ
तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है
बस
इसी प्रतीक्षा में... दिन गुजरते रहे
तुझे
पाने के स्वप्न मन में पलते रहे
एक
मदहोशी थी इस ख्याल में
तू
आयेगा इक दिन इस बात में
और
आज वह आस टूटी है
हर
कशमकश दिल से छूटी है
अब
न तलाश बाकी है न जुस्तजू तेरी
कोई
आवाज भी नहीं आती मेरी
खोजी
थे जो.. कहीं नहीं हैं वे नयन
शेष
अब न विरह कोई न वह लगन !
आस के न रहने पर सब समाप्त हुआ सा ही लगता है. लेकिन यह एक नयी शुरुआत का मार्ग भी ढूंढने को विवश करता है.
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण कविता.
दिल टूटकर भी उन्हें ही याद करता है जिसे दिल चाहता था कभी ...लाख कोशिश करो भूले न भूलते वे लम्हें ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
शेष अब न विरह कोई न वह लगन ! ----- एक विश्वास भरा सच
जवाब देंहटाएंप्रेम का अनकहा सच
वाह बहुत खूब
सादर
रचना जी, यशोदा जी, कविता जी व ज्योति जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंकुछ स्तब्धता की सी स्थिति अंतिम पंक्तियों में बहुत मुखर हो गई है.
जवाब देंहटाएंशब्दों के मध्य अन्तराल को पढने की आपमें अद्भुत क्षमता है..प्रतिभा जी !
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