झर सकता है वही निरंतर
यह
कैसी खलिश..यह हलचल सी क्यों है
जो
लौटा घर.. उर चंचल सा क्यों है
बादल
ज्यों बोझिल हो जल से
पुष्प
हुआ नत निज सौरभ से,
बंटने
को दोनों आतुर हैं
ऐसी
ही नजरें कातर हैं !
प्रेम
सुधा का नीर बहाएँ
सुरभि
सुवासित बन कर जाएँ,
कृत्य
किसी की पीड़ा हर लें
वही
तृप्त अंतर कर जाएँ !
चलते-चलते
कदम थमे थे
पल
भर ही पाया विश्राम,
पंख
लगे पुनः पैरों में
यह
चलना कितना अभिराम !
भर
ही डाली झोली उसने
इतना
भार सम्भालें कैसे,
रिक्त
लुटाकर ही करना है
पुष्प
और बदली के जैसे !
दे
ही डालें सब कुछ अपना
फिर
भी पूर्ण रहेगा अंतर,
शून्य
हुआ जो अपने भीतर
झर
सकता है वही निरंतर !
कैसी
अद्भुत बेला आई
भीतर
नयी कसक जागी है,
शीतल
अग्नि कोमल पाहन
जैसे
बिन ममता रागी है !
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