कैसे यह बात घटी
सबको
घर जाना है
आज
नहीं कल यहाँ
उतार वस्त्र देह का
हो
जाना रवाना है !
भुला
दिया जीत में
कभी
जगत रीत में
मीत
सभी हैं यहाँ
कोई
न बेगाना है
सबको
घर जाना है !
कैसे
यह बात घटी
लक्ष्य
से नजर हटी
स्वयं
को ही खो दिया
मिला
न ठिकाना है !
भेद
जो भी दीखते
ऊपर
ही सोहते
एक
रवि की किरण
बुने
ताना-बाना है !
स्वागत व आभार ओंकार जी
जवाब देंहटाएंपढ़कर ऐसा लगा जैसे अंतिम चार पंकित्यों में कविता का सार छुपा है... रवि की किरणे किस तरह ताना बाना बुनती हैं कि ऊपर ही सोहते भेद.. लक्ष्य से हमारी नज़र हटा देते हैं.... किन्तु घर तो सभी को जाना है... बहुत सुन्दर कृति .. बधाई !!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार नितिन जी, आपने कविता का भाव ग्रहण किया है..बधाई आपको भी !
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