जहाँ नाचने को जग सारा
जीवन
एक ऊर्जा अनुपम
पल-पल
नूतन होती जाती,
नव
छंद, नव ताल सीख लें
नव सुर में नवगीत सुनाती !
इस
पल देखो नभ कुछ कहता
झुकी
हुई वसुधा सुनती है !
पवन
ओढ़नी ओढ़ी अद्भुत
जल
धारा कल-कल बहती है !
मन
मयूर क्यों गुपचुप बैठा
जहाँ
नाचने को जग सारा,
अल्प
क्षुधा ही देह की लेकिन
फैलाया
है खूब पसारा !
मुक्त
हुआ हंसा भी विचरे
झूठी
हैं सारी जंजीरें,
स्वयं
पर ही स्वयं टिका यहाँ
जब
जाना बजते मंजीरे !
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता .
जवाब देंहटाएंमोनिका व मधुलिका जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंउत्सव से ही तो सारा जग नाच रहा है और हम कितने हतभागी हैं कि दृष्टि ही खो देते हैं ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी, जिसने यह जान लिया कि दृष्टि खो गयी है वह उसे पाने का हकदार बन ही गया !
जवाब देंहटाएंयहाँ बस उस दृष्टि की झलक मिलती है फिर तो वही ....
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