शुक्रवार, जुलाई 22

पावन मौन यहाँ छाया है

पावन मौन यहाँ छाया है


सहज खड़े पत्थर पहाड़ सब
जंगल अपनी धुन में गाते,
पावन मौन यहाँ छाया है
झरने यूँ ही बहते जाते !

वृक्ष न कहते फिरते खग से
बन जाओ तुम साधन मेरे,  
मानव ही केवल चेतन को
जड़ की तरह देखता जग में !

नहीं आग्रह सूरज करता
खिलें सुमन क्योंकि वह आया,  
पंछी गायें ही सुबहों को
कोई न ऐसा शोर मचाया  !

सहज घटा करता है सब कुछ
तृप्त हुए कर रहे मौज में,
एक अनाम प्रेम बहता है
सुख सृजते सुख बांटा करते !

स्वयं ही मिटता जाता मानव
दूजों को आहत करने में,
राज जानती है प्रकृति यह
सदा पनपती निज आनंद में !

स्वयं का हित जो कर न पाया
कैसे हित औरों का साधे,
भीतर तक जो पगा प्रेम से
वही बनेगा श्याम की राधे !

कैसी भूल में उलझा है मन
स्वयं से पृथक अन्य को जाने
देता दुःख वह तभी बींधता
अपने ही दामन में कांटे !

उंगली भी यदि कभी उठी तो
चोट स्वयं को ही लगती है,
एक ही सत्ता व्याप रही है
एक अजब लीला चलती है !

सहज हुआ जो यूँ जीएगा
जैसे फूल खिला करते हैं,
जैसे मीन तैरती जल में
जैसे अनिल बहा करते हैं !

श्रम शून्य हो जाये जब मन
सायास ही सब घटता हो,
जाने तभी ध्यान उतरा है
अंतर में प्रेम बढ़ता हो !

जिसे हराया हारे उससे
राज यह जिसने जान लिया है,
सभी मीत जो मीत स्वयं का
उसने ऐसा मान लिया है !



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