पावन मौन यहाँ छाया है
सहज
खड़े पत्थर पहाड़ सब
जंगल
अपनी धुन में गाते,
पावन
मौन यहाँ छाया है
झरने
यूँ ही बहते जाते !
वृक्ष
न कहते फिरते खग से
बन
जाओ तुम साधन मेरे,
मानव
ही केवल चेतन को
जड़
की तरह देखता जग में !
नहीं
आग्रह सूरज करता
खिलें
सुमन क्योंकि वह आया,
पंछी
गायें ही सुबहों को
कोई
न ऐसा शोर मचाया !
सहज
घटा करता है सब कुछ
तृप्त
हुए कर रहे मौज में,
एक
अनाम प्रेम बहता है
सुख
सृजते सुख बांटा करते !
स्वयं
ही मिटता जाता मानव
दूजों
को आहत करने में,
राज
जानती है प्रकृति यह
सदा
पनपती निज आनंद में !
स्वयं
का हित जो कर न पाया
कैसे
हित औरों का साधे,
भीतर
तक जो पगा प्रेम से
वही
बनेगा श्याम की राधे !
कैसी
भूल में उलझा है मन
स्वयं
से पृथक अन्य को जाने
देता
दुःख वह तभी बींधता
अपने
ही दामन में कांटे !
उंगली
भी यदि कभी उठी तो
चोट
स्वयं को ही लगती है,
एक
ही सत्ता व्याप रही है
एक
अजब लीला चलती है !
सहज
हुआ जो यूँ जीएगा
जैसे
फूल खिला करते हैं,
जैसे
मीन तैरती जल में
जैसे
अनिल बहा करते हैं !
श्रम
शून्य हो जाये जब मन
सायास
ही सब घटता हो,
जाने
तभी ध्यान उतरा है
अंतर
में प्रेम बढ़ता हो !
जिसे
हराया हारे उससे
राज
यह जिसने जान लिया है,
सभी
मीत जो मीत स्वयं का
उसने
ऐसा मान लिया है !
सुन्दर प्रस्तुति
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