ढाई आखर भी पढ़ सकता
उसका
होना ही काफी है
शेष
सभी कुछ सहज घट रहा,
जितना
जिसको भाए ले ले
दिवस
रात्रि वह सहज बंट रहा !
स्वर्ण
रश्मियाँ बिछी हुई हैं
इन्द्रधनुष
कोई गढ़ सकता,
मदिर
चन्द्रिमा भी बिखरी है
ढाई
आखर भी पढ़ सकता !
बहा
जा रहा अमृत सा जल
अंतर
में सावन को भर ले,
उड़ा
जा रहा पवन गतिमय
चाहे
तो हर व्याधि हर ले !
देना
जब से भूले हैं हम
लेने
की भी रीत छोड़ दी,
अपनी
प्रतिमा की खातिर ही
मर्यादा
हर एक तोड़ दी !
क्यों
न हम भी उसके जैसे
होकर
भी ना कुछ हो जाएँ,
एक
हुए फिर इस सृष्टि से
बिखरें,
बहें और मिट जाएँ !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 28 जुलाई जुलाई 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी !
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना........शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएंसुबह सुबह मन प्रसन्न हुआ रचना पढ़कर !
बहुत बढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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