शनिवार, फ़रवरी 25

चार कदम पर ही है होली


चार कदम पर ही है होली

मधु टपके बौराया उपवन
जाने कहाँ से रस  भरता है,
गदरायीं मंजरियाँ महकें 
संग समीरण के बहता है !

हुई नशीली फिजां चहकती 
फगुनाई सिर चढ़ कर बोली,
रंग-बिरंगी बगिया पुलके 
चार कदम पर ही है होली !

नन्ही चिड़िया हरी दूब पर 
नई फुनगियाँ  हर डाली पर,
कोई भेज रहा  है शायद
 पाती  गाता  पंछी सुस्वर !

हर पल जीवन उमग रहा है 
कभी धरा से कभी गगन से,
अंतर में यूँ भाव उमड़ते 
धुंधलाया हर दृश्य नयन से !

धूप और छाँव हर पल हैं 
दिवस-रात्रि, सुख-दुःख का मेला,
हास्य-रुदन दोनों घटते हैं
प्रीत बहाए दुई का रेला !

एक से ही उपजे हैं दोनों 
पतझड़ और बसंत अनूठे,
विस्मय से भर जाता अंतर 
दोनों के ही ढंग अनोखे !





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