कविता हुंकारना चाहती है
छिपी है अंतर के
गह्वर में
या उड़ रही है नील
अंतरिक्ष की ऊँचाईयों में
घूमती बियाबान
मरुथलों में
या डुबकी लगाती
है सागर की गहराइयों में
तिरती गंगा की
शांत धारा संग
कभी डोलती बन
कावेरी की ऊंची तरंग
खोज रही है अपना
ठिकाना
झांकती नेत्रों
में... नहीं उसके लिए कोई अजाना
घायल हो सुबकती हिंसक भीड़ देख
पड़ जाती मस्तक पर
नहीं मिटने वाली रेख
पूछती कितने सवाल
क्यों धर्म,
जाति और देश की
हदों के नाम पर
इतना बवाल
तोड़ कर हर घेरा
झाँकना चाहती है
जातीयता की
संकीर्ण दीवारों के पार
शांति की मशाल बन
जलना चाहती है
बरसना चाहती है
शीतल फुहार बनकर
जला दिए जिनके
स्कूल
चंद सिरफिरे वहशी
दरिंदों ने
उन मासूमों के
गाँव पर
उनके जमीरों के
भीतर भी ढूँढना चाहती है
इंसानियत की एक
खोयी किरण
सोये हुए लोगों
को जगाने के लिए
अमन और चैन की
हवा बहाने के लिए
आंधी बनकर घुमड़ना
चाहती है
गरज-गरज कर
कविता हुंकारना
चाहती है !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : मनोज कुमार और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुशील जी !
जवाब देंहटाएंकला और साहित्य मानव मन का संस्कार करता है संसार को सुन्दर और पूर्णतर बनाना है ,और कविता उसका सबसे मुखर रूप है -प्रत्येक स्थिति में दिशा भान करानेवाली .
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी, आपने साहित्य की अत्यंत सुंदर परिभाषा दी है...स्वागत व आभार !
हटाएंसही कहा ।
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