थम जाता सुन मधुर रागिनी
कोमल उर की कोंपल
भीतर
खिलने को आतुर है
प्रतिपल,
जब तक खुद को
नहीं लुटाया
दूर नजर आती है
मंजिल !
मनवा पल-पल इत-उत
डोले
ठहरा आहट पाकर
जिसकी,
जैसे हिरण
कुलाँचे भरता
थम जाता सुन मधुर
रागिनी !
जिसके आते ही उर
प्रांगण
देव वाटिका सा
खिल जाता,
हौले-हौले कदम
धरे जब
मन नव कुंदन बन
मुस्काता !
स्वयं ही दूर-दूर
रहे हम
दुःख छाया में
जन्मों बीते,
सुख बदली बन वह
आता है
एक पुकार उठे
अन्तर से !
रह ना पाए अनुपम
प्रेमिल
पावन है वह करता
पावन,
अर्पित मन को
करना होगा
युग-युग से हो
रहा अपावन !
आह्लादित है
सृष्टि प्रतिपल
खिला हुआ वह नील
कमल सा,
धरे धरा बन छाँव
गगन की
पंछी सा नव सुर
में गाता !
कोई उसका हाथ थाम
ले
बरबस कदमों में
झुक जाये,
दूरी नहीं भेद नहीं शेष
तृप्त हुआ सा
डोले गाये !
आदरणीय आपकी रचना उत्तम दर्जे की है ,कोमल भाव हृदय में एक तरंग उत्पन्न करतीं हैं
जवाब देंहटाएंआभार ''एकलव्य"
स्वागत व बहुत बहुत आभार ध्रुव जी !
हटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना है।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सोनू जी !
हटाएंसच में जब तक हम अपने स्व को विसर्जित नहीं करते, पास होते हुए भी कितनी दूर हो जाते चिर आनंद से...बहुत मनभावन और प्रभावी अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है, हम स्वयं को पकड़े रहते हैं और परम से दूर हो जाते हैं. स्वागत व आभार
हटाएंकुछ पाने को कुछ विस्मृत करना होता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण रचना है ...
खाली मन में ही सुख की वर्षा होती है..स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
हटाएंवाह वाह बहुत ही सुन्दर........अंतिम वाले से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ..
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संजय जी...अंतिम का अनुभव होने के बाद ही प्रथम का दर्शन होता है..सत्य तो यही है सहमत होना या न होना आप की स्वतन्त्रता है..
जवाब देंहटाएंहम भी तो खिलने को आतुर हैं प्रतिपल ।
जवाब देंहटाएंजो आतुर है वह खिल ही गया..बधाई !
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