जीवन की शाम
कितने बसंत बीते...याद
नहीं
मन आज थका सा लगता
मकड़जाल जो खुद ही बुना है
और अब जिसमें दम घुटता है
जमीनें जो कभी खरीदी गयीं
थी
इमारतें जो कभी बनवायी गयी
थीं
जिनमें कोई नहीं रहता अब
जो कभी ख़ुशी देने की बनीं
थीं सबब
अब बनी हैं जी का जंजाल
घड़ी विश्राम की आयी
समेटना है संसार !
हाथों में अब वह ताकत नहीं
पैरों को राहों की तलाश
नहीं
अब तो मन चाहता है
सुकून के दो चार पल
और तन चाहता है
इत्मीनान से बीते आज और कल
खबर नहीं परसों की भी
कौन करे बात बरसों की
बिन बुलाये चले आते हैं
कुछ अनचाहे विचार आसपास
होने लगा है कमजोरी का अहसास
पहले की सी सुबह अब भी होती
है
सूरज चढ़ता है, शाम ढलती है
पर नहीं अब दिल की हालत
सम्भलती है
कितने बसंत बीते...याद
नहीं
मन आज थका सा लगता !
उन सभी बुजुर्गों को समर्पित जो वृद्ध हो चले हैं.
बढती उम्र के साथ मन विश्राम की अवस्था में जाने लगता है
जवाब देंहटाएंउम्र के आख़िरी पड़ाव का सही आंकलन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना अनिता जी।👌👌
जवाब देंहटाएं:(
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव.अनिता जी
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक मंगलकामनाएं !
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
मन उदास करती गहन अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंइतने दिनों बाद आप सभी का आगमन एक सुखद अनुभूति से भर रहा है, हृदय से स्वागत व आभार आप सभी सुधीजनों का !
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