रस मकरंद बहा जाता है
अंजुरी क्यों रिक्त है अपनी
रस मकरंद बहा जाता है,
साज नवीन सजे महफिल में
सन्नाटा क्यों कर भाता है !
रोज भोर में भेज सँदेसे
गीत जागरण वह गाता है,
ढांप वसन करवट ले मनवा
खुद से दूर चला जाता है !
त्याज्य हुआ जो यहाँ अभीप्सित
हाल अजब न कहा जाता है,
बैठा है वह घर के अंदर
जान सुदूर छला जाता है !
मुख मोड़े ही बीता जीवन
बिन जिसके न रहा जाता है,
क्यों कर दीप जले अंतर में
सारा स्नेह घुला जाता है !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-09-2017) को गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर :चर्चामंच 2725 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
हटाएंसुंदर अति सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना अनिता जी।
जवाब देंहटाएंबेतरीन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार विकेश जी, श्वेता जी व गगन जी !
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन फिरोज गाँधी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
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