ढाई आखर भी पढ़ सकता
उसका
होना ही काफी है
शेष
सभी कुछ सहज घट रहा,
जितना
जिसको भाए ले ले
दिवस
रात वह सहज बंट रहा !
स्वर्ण
रश्मियाँ बिछी हुई हैं
इन्द्रधनुष
कोई गढ़ सकता,
मदिर
चन्द्रिमा भी बिखरी है
ढाई
आखर भी पढ़ सकता !
बहा
जा रहा अमृत सा जल
अंतर
में सावन को भर ले,
उड़ा
जा रहा गतिमय समीर
चाहे
तो हर व्याधि हर ले !
देना
जब से भूले हैं हम
लेने
की भी रीत छोड़ दी,
अपनी
प्रतिमा की खातिर ही
मर्यादा
हर एक तोड़ दी !
क्यों
न हम भी उसके जैसे
होकर
भी ना कुछ हो जाएँ,
एक
हुए फिर इस सृष्टि से
बिखरें,
बहें और मिट जाएँ !
अविस्मरणीय, सब कुछ इतना कुछ देने-रचने के बाद भी कर्ता-रचनाकर्मी का भाव त्याग देने की ऐसी सुंदर अनुभूति कितने अच्छे कविताई उदगारों से प्रकट हो रही है। सुन्दरतम। मनोहर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार विकेश जी !
हटाएंवाह्ह्ह....अति सुंदर भाव में गूँथी हुई बहुत मनोहारी रचना अनिता जी।👌👌
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार श्वेता जी !
हटाएंआपकी इस पस्तुति का लिंक 07-09-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2720 में दीिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत धन्यवाद दिलबाग जी !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुशील जी !
जवाब देंहटाएं